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  • BCOM 1st Year Business Economics (व्यवसायिक अर्थव्यवस्था) Chapter 1 भारत में अर्थशास्त्र : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, परिभाषाएँ, व्यष्टि तथा समष्टि की अवधारणा एवं महत्व(Economics in India :Historical Background, Definitions, Micro and Macro concept and Importance)
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    इकाई – प्रथम | UNIT-FIRSTभारत में अर्थशास्त्र : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, परिभाषाएँ, व्यष्टि तथा समष्टि की अवधारणा एवं महत्व आर्थिक अध्ययन की रीतियाँ एवं अर्थशास्त्र के नियम अर्थशास्त्र का महत्व एवं अर्थव्यवस्था की आधारभूत समस्याएँभारत में अर्थशास्त्र : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, परिभाषाएँ, व्यष्टि तथा समष्टि की अवधारणा एवं महत्व(Economics in India :Historical Background, Definitions, Micro and Macro concept and Importance)दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Type Questions)प्रश्न 1.भारत में अर्थशास्त्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझाइए । Explain the historical background of Economics in India. भारत में अर्थशास्त्रउत्तर-(Economics in India)• परिचय (Introduction ) – अर्थशास्त्र Economics को जब भी पढ़ा जाता है अथवा आर्थिक विश्लेषण किए जाते हैं, आर्थिक गणना की जाती है तो अधिकांश पश्चिमी अर्थशास्त्रियों के सिद्धान्त अथवा उनकी नीतियों का ही अनुसरण किया जाता है, परन्तु अधिकांश पश्चिमी अर्थशास्त्रियों के सिद्धान्त पश्चिम की अर्थव्यवस्था पर ही खरे उतरे हैं। आज आधुनिक अर्थव्यवस्था में कुछ ही सिद्धान्त सार्वभौमिक हैं, परन्तु अधिकांश सिद्धान्त उसी अर्थव्यवस्था के नियमों पर क्रियान्वित होते हैं। वर्तमान में भारत विश्व की एक उभरती तथा प्रगतिशील अर्थव्यवस्था के रूप में सामने आई है और भारतीय अर्थशास्त्रियों के विचारों के रूप में सामने आई है। भारतीय. अर्थशास्त्रियों के विचारों, सिद्धान्तों को अपनाया जाए तो निश्चित तौर पर विश्व की समस्त पिछड़ी और विकासशील अर्थव्यवस्थाएँ प्रगति करेंगी। भारतीय अर्थशास्त्रियों का विश्व की आर्थिक क्रियाओं में योगदान क्या रहा, इस अध्याय में इसी पक्ष को विद्यार्थियों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है । अर्थशास्त्र के जनक अथवा आर्थिक सिद्धान्तों को एकत्र कर सबके समक्ष लाने का क्षेय एडम स्मिथ को जाता है, परन्तु भारतीय अर्थशास्त्री आचार्य कौटिल्य का योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है ।भारतीय इतिहास के स्वर्णिम युग मौर्यकाल में आचार्य विष्णुगुप्त का प्रादुर्भाव हुआ था । भारतीय इतिहास में उनको चाणक्य की संज्ञा दी गई है। आचार्य कौटिल्य ने अर्थशास्त्र की रचना की थी। इस पुस्तक में 6000 श्लोक 180 प्रकरण, 150 अध्याय एवं 15 अधिकरण ,[1].

    2 / यशराज व्यावसायिक अर्थशास्त्रहैं । इतिहासकारों के अनुसार आचार्य चाणक्य ने इसकी रचना 300 ई. ईसा पूर्व की थी। इस पुस्तक में कौटिल्य ने राजनीति, धर्म, नीति, न्याय, प्रशासन, कृषि, पशुपालन, राजस्व आदि सभी विषयों का प्रतिपादन किया है, जो आज भी प्रासंगिक हो सकता है।आचार्य चाणक्य के बाद एक लम्बे अन्तराल तक अर्थशास्त्र के सम्बन्ध में कोई विशेष मत प्रतिपादित नहीं हो पाया, किन्तु भारतवर्ष में जब सम्राट अकबर का राज्य था, एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री उनके नवरत्नों में था, जिसे इतिहास राजा टोडरमल के नाम से जानता है, भूमि प्रबन्धन की उनकी व्यवस्था को वर्तमान में भी उपयोग में लाया जाता है ।निकट अतीत आधुनिक भारत में अर्थशास्त्री के रूप में दादाभाई नौरोजी का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है । उनको आधुनिक भारतीय अर्थशास्त्र के जनक के रूप में जाना जाता है, वहीं बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि एवं अद्भुत प्रतिभा के धनी, छात्र जीवन से ही वह देश की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति से चिन्तित रहते थे, वह है दीनदयाल उपाध्याय । वे समाज के उपेक्षित वर्ग के उत्थान एवं स्वदेशी अर्थव्यवस्था के माध्यम से देश का आर्थिक विकास चाहते थे। उन्होंने भारतीय अर्थ नीति, टैक्स, बेरोजगारी आदि आर्थिक समस्याओं पर अपने सटीक मॉडल प्रस्तुत किए ।’डॉ. राममनोहर लोहिया (Dr. Ram Manohar Lohiya) – बीसवीं सदी के महान समाजवादी आर्थिक चिन्तक थे। डॉ. राममनोहर लोहिया पर कार्ल मार्क्स का प्रभाव विद्यार्थी जीवन में बहुत अधिक था, किन्तु बाद में महात्मा गाँधीजी के व्यक्तित्व एवं उनकी विचारधारा से प्रभावित होने लगे । लोहियाजी ने आधुनिक अर्थव्यवस्था के अनुसार मशीनीकरण, नवीन समाजवादी विचारधारा आदि विचारों पर समष्टि अर्थशास्त्र में सिद्धान्त प्रस्तुत किए हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.ए. अर्थशास्त्र की उपाधि प्राप्त करने वाले प्रोफेसर जे. के. मेहता द्वारा एडवान्स इकॉनॉमिक थ्योरी, अर्थशास्त्र की परिभाषा, लाभ का सिद्धान्त, उपभोक्ता की बचतें, जैसे आर्थिक पहलुओं पर अपने सटीक तर्क प्रस्तुत किए हैं । अर्थशास्त्र की इस पुस्तक में प्रथम अध्याय का उद्देश्य यही है कि विद्यार्थी भारतीय अर्थशास्त्रियों के विचार तथा नीतियों को विस्तारपूर्वक पढ़े और समझें तथा इनके अध्ययन के पश्चात् अपने आर्थिक शोध कार्यों भारतीय अर्थशास्त्रियों के सिद्धान्तों को भी शोध का विषय बनाएँ ।प्रश्न 2. आचार्य कौटिल्य कौन थे ? कौटिल्य के आर्थिक विचारों को संक्षेप में समझाइए |Who was Acharya Kautilya? Discuss in brief the economic thoughts of Kautilya.उत्तर-आचार्य कौटिल्य (Acharya Kautilya)कौटिल्य का नाम विष्णुगुप्त या चाणक्य था । वह चन्द्रगुप्त मौर्य जो 321 ई. पू. गद्दी पर बैठा था, के मंत्री थे। उन्होंने नन्द वंश से किसी कारण रुष्ट होने पर उसके नाश की प्रतिज्ञा की थी और इसकी पूर्ति उन्होंने चन्द्रगुप्त को मगध राज्य का राजा और भारत का सम्राट बनवाकर की थी। उन्होंने अर्थशास्त्र की रचना की थी । कौटिल्य ने अपनी पुस्तक में राजा, मंत्रियों और उनके कार्यों की व्याख्या की है । इस पुस्तक में 430 पृष्ठ हैं तथा 15 अध्यायों में विभक्त हैं। इस पुस्तक में अर्थशास्त्र के सिद्धान्त एवं व्यवहार की विस्तृत चर्चा की गई है। कौटिल्य के आर्थिक विचारअपने अर्थशास्त्र नामक ग्रन्थ में इन्होंने अनेक आर्थिक विचारों की व्याख्या की है। उनमें से कुछ प्रमुख अग्रलिखित हैं-

    भारत में अर्थशास्त्र : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, परिभाषाएँ / 31. अर्थशास्त्र की परिभाषा – अर्थशास्त्र शब्द की प्रथम परिभाषा कौटिल्य के ग्रन्थ में मिलती है। उनके अनुसार, अर्थ मनुष्य के जीवन की वृत्ति का आधार है । अर्थशास्त्र ह विज्ञान है, जो मनुष्य के एवं पृथ्वी के पालन तथा व्यापार में संयुक्त रूप से होता है। कौटिल्य . ने वृत्ति के स्थान पर अर्थशास्त्र शब्द का प्रयोग किया है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र केवल अर्थ का वर्णन ही नहीं करता है, वरन् इसमें राजनीति, न्यायशास्त्र, सैन्य विज्ञान आदि का भी वर्णन किया गया है।2. कृषि-राज्य के सभी व्यवसाय तीन वर्गों में विभाजित किए गए थे – कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इन तीनों में कृषि को प्रमुख स्थान दिया गया है, क्योंकि यह समाज को अनाज, पशु, धन, सोना, वन सम्पदा तथा सस्ता श्रम प्रदान करती है। कौटिल्य के अनुसार, ब्राह्मण तथा क्षत्रिय कृषि व्यवस्था को अपना सकते थे, परन्तु इनमें ब्राह्मणों को अपने हाथ से हल चलाने की आज्ञा नहीं थी ।3. श्रम की महानता — कौटिल्य ने श्रमिकों के विषय में विस्तार से नियम बताए हैं। उनके अनुसार मजदूरी वस्तु के गुण तथा मात्रा के आधार पर भी होनी चाहिए। छुट्टियों के दिन में अतिरिक्त वेतन मिलना चाहिए। मजदूरी के निर्धारण हेतु न्यूनतम जीवन-निर्वाह मजदूरी का विचार दिया है। उन्होंने वृद्धावस्था में पेंशन, पुरस्कार इत्यादि के विषय में भी विचार दिए हैं।4. व्यापार – कौटिल्य ने व्यापार के विकास तथा नियम सम्बन्धी विस्तृत विवेचना की है। उनके अनुसार, व्यापार पर राज्य का नियन्त्रण आवश्यक है । उस समय स्वतन्त्र व्यापार की प्रथा प्रचलित थी । व्यापार को पाने वाली वस्तुओं पर सीमा शुल्क तथा प्रशुल्कों को लगाया जाता था । करों से प्राप्त इस आय पर राज्य का अधिकार होता था । व्यापार को विकसित करने के लिए राज्य कानून बनाना था ।5. परिवहन-कौटिल्य के अनुसार परिवहन तथा संवादवाहन के साधनों के विकास का दायित्व राज्य का है। उस समय परिवहन का प्रमुख साधन नदियाँ तथा सड़क थे । विदेशी व्यापार समुद्री मार्ग से होता था । कौटिल्य ने भूमि का मार्ग आर्थिक लाभप्रद बताया है, क्योंकि यह अधिक सुरक्षित होता है ।6. राजस्व – करारोपण से राज्य को सबसे अधिक आय प्राप्त होती थी । इसको ‘राजकर’ कहते थे । कर की दर का निर्धारण हिन्दू धर्म के आदेशों द्वारा किया जाता था । कौटिल्य ने कर प्रणाली के सम्बन्ध में कहा है कि यह ऐसी होनी चाहिए, जो प्रजा के लिए भार स्वरूप न हो। राजा को मधुमक्खी के समान कार्य करना चाहिए, जो पौधों को असुविधा पहुँचाए बिना शहद संचय कर लेती हैं। कर वर्ष में एक बार तथा धनी लोगों पर भुगतान करने की योग्यता के अनुसार लगाने चाहिए।7. मिश्रित अर्थव्यवस्था – कौटिल्य ने राजकीय तथा व्यक्तिगत उद्योगों का वर्णन किया है । इस प्रकार वह मिश्रित अर्थव्यवस्था के पक्षधर थे, परन्तु इस व्यवस्था में वह राज्य के अधिक से अधिक योगदान की बात कहते हैं। राज्य उद्योगों में ‘सूत्राध्यक्ष’ सूती वस्त्रों का निर्माण कराता था तथा ‘रथाध्यक्ष’ रथों का निर्माण करता था। सेना का समस्त सामान सरकारी कारखाने में बनता था। कौटिल्य ने खानों पर भी राज्य का नियन्त्रण आवश्यक बताया, क्योंकि इनसे मूल्यवान धातुएँ प्राप्त होती हैं।8. अन्य विचार – कौटिल्य ने दासों से सम्बन्धित नियम, ब्याज प्राप्ति, कीमतों का नियन्त्रण, नगर नियोजन, सामाजिक सुरक्षा, कल्याणकारी राज्य आदि से सम्बन्धित अनेक विचारों की भी व्याख्या की है।

    4 / यशराज व्यावसायिक अर्थशास्त्रप्रश्न 3. अर्थशास्त्र का उद्भव कैसे हुआ ? अर्थशास्त्र की व्यवस्थित परिभाषा दीजिए। How the origin of Economics? Give suitable definition of Economics.” उत्तर- अर्थशास्त्र का उद्भव – अर्थशास्त्र को पढ़ने अथवा समझने से पूर्व सर्वप्रथम हमें यह ज्ञात होना अत्यन्त आवश्यक है कि अर्थशास्त्र का उद्भव अर्थात् उसका जन्म कैसे हुआ है। सामान्यतः यह माना जाता है कि अर्थशास्त्र का जन्म 1776 में हुआ है, क्योंकि इस वर्ष ‘An enquiry in to the nature and causes of the wealth of nations” का प्रकाशन हुआ था। अधिकांश लोग इस बात से सहमत हैं कि स्मिथ ने यत्र-तत्र बिखरे आर्थिक विचारों का संग्रह मात्र किया। यही कारण है, जिसके आधार पर एडम स्मिथ को अर्थशास्त्र का जनक कहा जाता है। यह भी माना जा सकता है कि एडम स्मिथ ही एक ऐसे महान् ‘अर्थशास्त्री थे, जिन्होंने अर्थशास्त्र को एक व्यवस्थित तथा वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया।एडम स्मिथ के युग के बाद अर्थशास्त्र उत्तरोत्तर प्रगति-पंथ पर रहा और आज भी प्रगति का क्रम जारी है। अर्थशास्त्र अभी भी अपनी पूर्ण विकास की स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाया है। यह तो भविष्य ही बताएगा कि आधुनिकता एवं परिवर्तनशीलता को देखते हुए नित नए पहलू सामने आते हैं।अर्थशास्त्र की परिभाषा ( Definition of Economics) – अर्थशास्त्र एक प्रगतिशील शास्त्र है। विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने इसकी भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी हैं । अर्थशास्त्र की परिभाषाओं का वर्गीकरण निम्नलिखित है-(I) धन सम्बन्धी परिभाषाएँ (Wealth Definition)ये परिभाषाएँ निम्न है -:(अ) एडम स्मिथ – ” अर्थशास्त्र वह अध्ययन है, जो राष्ट्रों के धन के स्वभाव एवं इसके कारणों की जाँच करता है। एडम स्मिथ की परिभाषा का सार, “अर्थशास्त्र धन सम्बन्धी विज्ञान है । “(ब) जे.बी.से. के अनुसार, “अर्थशास्त्र वह विज्ञान है, जो धन का अध्ययन करता है।” (II) कल्याण सम्बन्धी परिभाषाएँ (Welfare Definitions) :इन परिभाषाओं में निम्न प्रमुख है-(अ) प्रो. मार्शल, “अर्थशास्त्र में मानव जीवन के साधारण व्यापार सम्बन्धी कार्यों का अध्ययन किया जाता है । यह व्यक्तिगत तथा सामाजिक क्रियाओं के उस भाग की जाँच करता है, जिसका निकट सम्बन्ध भौतिक साधनों की प्राप्ति तथा उसके उपयोग से है, जो कल्याण के लिए आवश्यक है । “(ब) प्रो. पीगू, “प्रो. पीगू मार्शल के शिष्य थे । उन्होंने अपनी परिभाषा को थोड़ा व्यापक रूप प्रदान किया है, “अर्थशास्त्र में आर्थिक कल्याण का अध्ययन होता है। आर्थिक कल्याण से हमारा अभिप्राय, सामाजिक कल्याण के उस भाग से है, जिसे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप मुद्रा के मापदण्ड से सम्बन्धित किया जा सकता है।”(III) दुर्लभता सम्बन्धी परिभाषाएँ (Scarcity Definitions) :इन परिभाषाओं में निम्न प्रमुख है-(अ) प्रो. रॉबिन्स के अनुसार, “अर्थशास्त्र वह विज्ञान है, जो लक्ष्यों तथा उनके सीमित ,

    भारत में अर्थशास्त्र : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, परिभाषाएँ / 5एव वैकल्पिक उपयोगों वाले साधनों के परस्पर सम्बन्धों के रूप में मानव व्यवहार का अध्ययन करता है।”(ब) इच्छाओं के लोप सम्बन्धी परिभाषाएँ (Definition on wantlessness): भारतीय दर्शन से प्रभावित होकर जे. के. मेहता, “अर्थशास्त्र वह विज्ञान है, जो मानवीय `आचरण का, इच्छारहित अवस्था में पहुँचने के एक साधन के रूप में अध्ययन करता है।” (स) आधुनिक परिभाषाएँ (Modern Definitions) :नोबल पुरस्कार विजेता प्रो. सैम्युलसन ने वर्तमान समय के अर्थशास्त्र को इन शब्दों में परिभाषित किया है, “अर्थशास्त्र इस बात का अध्ययन करता है कि व्यक्ति और समाज अनेक प्रयोगों में लाए जाने वाले उत्पादन के सीमित साधनों का, एक समयावधि में विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन करने एवं उनको समाज में विभिन्न व्यक्तियों और समूहों में उपभोग हेतु वर्तमान तथा भविष्य के बीच बाँटने के लिए किस प्रकार चुनते हैं, ऐसा वे चाहे मुद्रा का प्रयोग करके करें अथवा इसके बिना करें।”निष्कर्ष – अर्थशास्त्र के उद्भव एवं विचारधारा को लेकर हमने एडम स्मिथ से लेकर प्रो. रॉबिन्स तक के विचारों का अध्ययन किया। इन विचारधाराओं का वर्गीकरण किया जाए, तो तीन विचारधाराएँ क्रमशः प्रतिष्ठित विचारधारा कल्याणवादी विचारधारा तथा दुर्लभता सम्बन्धी विचारधारा का ही अधिक बोलबाला रहा है। इन विभिन्न विचारधाराओं के परिणामस्वरूप ही अर्थशास्त्र की विषय सामग्री में भिन्नता आ गयी है। इन विचारों के आधार पर यह स्पष्ट किया जा सकता है कि उस समय के विद्वानों ने अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री में कुछ आधुनिक क्षेत्रों, पहलुओं को छोड़ दिया था । अतः अर्थशास्त्र की परिभाषा एवं उद्भव के सम्बन्ध में हम यह मान सकते हैं कि यह एक विकासशील अध्ययन है, जो व्यावहारिकता के आधार पर परिवर्तित होता रहता है।प्रश्न 4. व्यष्टि एवं समष्टि अर्थशास्त्र की अवधारणा को उदाहरण सहित समझाइए । Discuss with example to concept of Micro and Macro Economics.अथवाव्यष्टि अर्थशास्त्र एवं समष्टि अर्थशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए तथा इनकी पारस्परिक निर्भरता को समझाइये |Distinguish between Micro & Macro Economics. Explain the Interdependence of Micro & Macro Econòmics.अथवाव्यष्टि तथा समाष्टि अर्थशास्त्र में भेद कीजिए। इन दोनों के बीच क्या सम्बन्ध है?Distinguish between micro and macro Economics. What is the relationship between the two.उत्तर- व्यष्टि तथा समष्टि अर्थशास्त्र आर्थिक विश्लेषण की दो शाखाएँ हैं । ये दोनों आपस में प्रतियोगी न होकर एक-दूसरे की पूरक हैं। इनमें से कोई भी प्रणाली अपने आप में पूर्ण नहीं है। प्रत्येक प्रणाली की अपनी-अपनी सीमाएँ तथा दोष हैं। एक प्रणाली की सीमाएँ तथा दोष दूसरी प्रणाली के द्वारा दूर की जा सकती हैं, इसलिए व्यष्टि एवं समष्टि अर्थशास्त्र को एक-दूसरे का प्रतियोगी न मानकर पूरक माना गया है।दोनों प्रणालियों की तुलना एवं पारस्परिक निर्भरता का विवेचन करने से पूर्व इनका आशय समझना आवश्यक है।

    6 / यशराज व्यावसायिक अर्थशास्त्रव्यष्टि या सूक्ष्म अर्थशास्त्र की अवधारणा(Concept of Micro Economics)व्यष्टि अर्थशास्त्र के अन्तर्गत व्यक्तिगत इकाइयों के आर्थिक व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। व्यक्तिगत इकाई एक व्यक्ति, एक परिवार, एक फर्म या एक उद्योग के रूप में हो सकती है।• किसी वस्तु विशेष के मूल्य का निर्धारण कैसे होता है? एक व्यक्ति अपनी सीमित आय से अधिकतम संतुष्टि कैसे प्राप्त कर सकता है? एक फर्म या उत्पादक किस प्रकार अपने लाभ को अधिकतम कर सकता है, आदि विषयों पर अध्ययन सूक्ष्म अर्थशास्त्र के अन्तर्गत किया जाता है।समष्टि या व्यापक अर्थशास्त्र की अवधारणा(Concept of Macro Economics)समष्टि अर्थशास्त्र, अर्थशास्त्र की वह शाखा है जो किसी व्यक्ति या इकाई विशेष का नहीं वरन् सभी इकाइयों या सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के व्यवहार का अध्ययन करता है। समष्टि अर्थशास्त्र में कुल आय, कुल उत्पादन, कुल उपभोग, कुल बचत, कुल रोजगार एवं कुल सामान्य मूल्य स्तर आदि का अध्ययन किया जाता है ।व्यष्टि एवं समष्टि अर्थशास्त्र की पारस्परिक निर्भरताआर्थिक घटनाओं के अध्ययन हेतु व्यष्टि तथा समष्टि अर्थशास्त्र के अलग-अलग तरीके हैं परन्तु फिर भी ये दोनों विधियाँ एक-दूसरे से पूर्णतः स्वतन्त्र नहीं है । वास्तविकता तो यह है कि ये दोनों आपस में प्रतियोगी न होकर एक-दूसरे की पूरक हैं। प्रो. सेम्युलसन का यह कथन ठीक है कि “वास्तव में सूक्ष्म एवं वृहद् अर्थशास्त्र में कोई विरोध नहीं है। दोनों अत्यन्त आवश्यक हैं। यदि आप एक को समझते हैं और दूसरे से अनभिज्ञ रहते हैं तो आप केवल अर्द्ध शिक्षित हैं ।” इन दोनों विधियों में से प्रत्येक की सीमाएँ एवं दोष हैं तथा एक विधि की सीमाएँ एवं दोष दूसरी विधि के द्वारा ही दूर की जा सकती है। व्यष्टि एवं समष्टि अर्थशास्त्र की पारस्परिक निर्भरता को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-व्यष्टि अर्थशास्त्र की समष्टि अर्थशास्त्र पर निर्भरता – केवल व्यष्टि अर्थशास्त्र के द्वारा आर्थिक घटनाओं का अध्ययन करना सम्भव नहीं है । इसे निम्नलिखित उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है- -(1) एक फर्म द्वारा निर्मित वस्तु की माँग बाजार में कितनी होगी, यह बात उस फर्म द्वारा निर्धारित कीमत पर निर्भर नहीं करती है, वरन् समाज की कुल क्रय शक्ति पर निर्भर करती है। (2) इसी प्रकार एक वस्तु विशेष के मूल्य का निर्धारण केवल उस वस्तु विशेष की माँग और पूर्ति पर ही निर्भर नहीं करता है, वरन् बाजार में उपलब्ध अन्य वस्तुओं की कीमतों पर निर्भर करता है।(3) जब एक फर्म या उद्योग श्रम एवं कच्चे माल पर व्यय की राशि अथवा उत्पादन लागत का अनुमान लगाता है, तब वह स्वयं अपनी माँग से नहीं वरन् उन साधनों की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में माँग पर निर्भर करता है ।उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि व्यष्टि अर्थशास्त्र आर्थिक घटनाओं एवं समस्याओं के अध्ययन के लिए समष्टि अर्थशास्त्र पर निर्भर है ।समष्टि अर्थशास्त्र की व्यष्टि अर्थशास्त्र पर निर्भरता (i) सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था का निर्माण व्यक्ति इकाई के योग से होता है। (जैसे व्यक्तियों,

    भारत में अर्थशास्त्र : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, परिभाषाएँ / 7.परिवारों, फर्मों आदि) अतः सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के संचालन एवं उचित ज्ञान के लिए विभिन्न वैयक्तिक इकाइयों तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धों पर ध्यान देना आवश्यक है 1 (ii) वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि होने पर उत्पादन में वृद्धि होना स्वाभाविक है, किन्तु यह आवश्यक नहीं कि सभी फर्मों में उत्पादन बढ़ा हो। कुछ फर्में ऐसी भी हो सकती हैं जिनमें उत्पादन लागत वृद्धि नियम लागू हो रहा हो और मूल्यों में वृद्धि होने पर भी उत्पादन में वृद्धि न हो। (iii) माना कि लोगों की आय बढ़ जाती है, तो लोग इसे विभिन्न प्रकार से व्यय करते हैं। आय बढ़ जाने से लोगों में साइकिल की अपेक्षा मोपेड या स्कूटर की माँग बढ़ जायेगी । फलस्वरूप साइकल के कारखाने में उत्पादन घटेगा जबकि मोपेड तथा स्कूटर के कारखाने मेंउत्पादन बढ़ेगा।उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि व्यापक अर्थशास्त्र समस्याओं के अध्ययन के लिए सूक्ष्म अर्थशास्त्र पर निर्भर है।निष्कर्ष – इस प्रकार उपर्युक्त व्याख्या से यह स्पष्ट है कि व्यष्टि एवं समष्टि अर्थशास्त्र एक-दूसरे के पूरक हैं, एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं व एक-दूसरे पर निर्भर हैं । समष्टि अर्थशास्त्र का महत्व इसीलिए है कि यह विधि कुल आय, कुल उत्पादन, कुल रोजगार जैसे समूहों से सम्बन्धित है और व्यष्टि अर्थशास्त्र का महत्व इसलिए है कि राष्ट्रीय आय एवम् कुल उत्पादन अंतत: लाखों व्यक्तियों तथा फर्मों के निर्णयों का परिणाम होती है ।संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अर्थशास्त्र के उचित ढंग एवं सही संचालन एवं समस्याओं का उचित हल ढूँढने के लिए व्यष्टि एवं समष्टि दोनों अर्थशास्त्र की आवश्यकता है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. सेम्यूलसन (Samulson) का यह कथन उचित ही है कि “वास्तव में सूक्ष्म एवं वृहद अर्थशास्त्र में कोई विरोध नहीं है । दोनों अत्यन्त आवश्यक हैं। यदि आप एक को समझते हैं और दूसरे से अनभिज्ञ रहते हैं तो आप केवल अर्द्धशिक्षित हैं । ‘व्यष्टि तथा समष्टि अर्थशास्त्र में अन्तर (Difference between Micro and Macro Economics)अन्तर1. अर्थव्यष्टि अर्थशास्त्र इसके अन्तर्गत व्यक्तिगत इकाइयों के आर्थिक व्यवहार का अध्ययन किया जाता है ।2. उपयोगिता इस अर्थशास्त्र का उपयोग समष्टि अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों की सत्यता की जाँच के लिए किया जा सकता है। यह व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता है । व्यष्टि अर्थशास्त्र व्यक्तिगत, आय, कीमत, उत्पादन आदि की ओर निर्देश देता है । 3. महत्व.. 4. निर्देशनसमष्टि अर्थशास्त्र समष्टि अर्थशास्त्र, अर्थशास्त्र की वह शाखा है, जिसमें किसी व्यक्ति विशेष का नहीं वरन् सभी इकाइयों या सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। समूह की संरचना के भ्रम को दूर करने में यह उपयोगी होता है ।यह सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर नीति निर्धारण में उपयोगी है।यह सामान्य कीमत स्तर, राष्ट्रीय आय और सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था की ओर निर्देशन करता है।

    8 / यशराज व्यावसायिक अर्थशास्त्र5. विश्लेषण6. प्रधानतायह कीमत विश्लेषण से जुड़ा हुआ है। यह आय विश्लेषण से जुड़ा हुआ है।7. समाधान एवं नीतिइसमें सम्पूर्ण व्यवहार की संरचना तथा इसमें सम्पूर्ण व्यवहार को प्रधानता अंगों की विविधताओं को प्रधानता दी दी जाती है।जाती है।इसमें व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान यह सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था की का विश्लेषण कर एवं नीति की व्याख्या की जाती है। समस्या विश्वव्यापी नीतियों का निर्धारणप्रस्तुत करता है ।प्रश्न 5. अर्थशास्त्र के सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक महत्व की विवेचना कीजिए । Discuss theoritical and practical significance of economic study. अथवाव्यावहारिक जीवन में अर्थशास्त्र के अध्ययन से क्या लाभ हैं ? इसका अध्ययन ग्रामीण जीवन के सुधार में किस प्रकार सहायक है ? What is advantages of economic study in practical life? How is this study useful to farmers?अथवाहम अर्थशास्त्र का अध्ययन क्यों करते हैं ? विस्तारपूर्वक समझाइए | Why do we study economics? Explain in detail.उत्तर-अर्थशास्त्र का महत्व(Importance of Economics)“अर्थशास्त्र आधुनिक युग का बौद्धिक धर्म है।”- डार्विनआज संसार का प्रत्येक देश अपनी आर्थिक समस्या को सुलझाने में लगा है। रहनसहन का स्तर ऊँचा करना, प्राकृतिक साधनों का श्रेष्ठतम उपयोग करना, उद्योगों का विकास करना, रोजगार की व्यवस्था करना, पूँजी निर्माण को गति देना, प्रत्येक देश की अनिवार्य जरूरत हो गयी है। ऐसे में अर्थशास्त्र का अध्ययन करना अनिवार्य हो गया है । यह ऐसा शास्त्र है जिसकी मदद से हम देश की अर्थव्यवस्था सम्बन्धी समस्याओं से निपट सकते हैं।प्रो. पीगू ने अर्थशास्त्र को, “ज्ञानदायक तथा फलदायक शास्त्र बताया है।” अर्थशास्त्र एक ऐसा शास्त्र है जिसके अध्ययन से उपभोक्ता, निर्माता, कृषक, राजनीतिक या श्रमिक सभी वर्ग लाभान्वित हैं।’अर्थशास्त्र के अध्ययन के महत्व को हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं- (1) सैद्धान्तिक महत्व। (2) व्यावहारिक महत्व ।(1) सैद्धान्तिक महत्व – सैद्धान्तिक महत्व को दो भागों में बाँटा गया है(अ) सामान्य सैद्धान्तिक महत्व और (ब) विशुद्ध आर्थिक सिद्धान्त ।(अ) सामान्य सैद्धान्तिक महत्व – सामान्य सैद्धान्तिक महत्व को निम्न बिन्दुओं के आधार पर समझा जा सकता है-1. ज्ञान में वृद्धि-आर्थिक अवस्था का ज्ञान अर्थशास्त्र के अध्ययन से ही प्राप्त होता है। आर्थिक समस्याओं को कैसे सुलझाना अर्थशास्त्र हमें सिखाता है। इसके अध्ययन से हम धन का उपभोग, उत्पादन, विनिमय, वितरण तथा राजस्व की क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं।1

    भारत में अर्थशास्त्र : ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, परिभाषाएँ / 92. चिन्तन शक्ति का विकास – यह तर्क करने की, सोचने-समझने की शक्ति में वृद्धि करता है । अर्थशास्त्र के नियमों का निर्माण भी तर्कों पर आधारित है। अर्थशास्त्र की आगमन तथा निगमन प्रणाली का अध्ययन हमारी तर्क शक्ति को 1 ‘बढ़ाता है। I3. पारस्परिक निर्भरता का ज्ञान – अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्र एक-दूसरे पर आश्रित होते हैं। व्यवसाय, उद्योगों तथा आर्थिक क्रिया-कलापों में अटूट रिश्ता होता है। इसका विस्तृत अध्ययन अर्थशास्त्र में किया जाता है ।4. आर्थिक प्रणालियों का ज्ञान – आर्थिक समस्याओं से छुटकारा पाने के लिये विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न आर्थिक प्रणालियाँ अपनायी जाती हैं। कोई साम्यवाद अपनाता है तो कोई पूँजीवाद या कोई देश मिश्रित आर्थिक प्रणाली को अपनाता है। इन प्रणालियों की अर्थशास्त्र विस्तृत विवेचना करता है ।(ब) विशुद्ध आर्थिक सिद्धान्त – अर्थशास्त्र के अन्तर्गत कई विशुद्ध आर्थिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन हुआ है, जिससे अनेक लाभ होते हैं ।आर्थिक सिद्धान्त कारण और परिणाम के मध्य सम्बन्धों की व्याख्या करते हैं। आर्थिक तत्वों में परिवर्तन के कारण समयानुसार भविष्यवाणी में आर्थिक सिद्धान्त मदद करते हैं। एक ठोस संरचना प्रस्तुत करने में आर्थिक सिद्धान्त मदद करते हैं(2) व्यावहारिक महत्व – सैद्धान्तिक महत्व के अतिरिक्त अर्थशास्त्र का व्यावहारिक महत्व भी है। जिसे बिन्दुओं के द्वारा समझा जा सकता है-1. उत्पादकों को लाभ प्रत्येक उत्पादक कम लागत पर श्रेष्ठ व अधिक उत्पादन करना चाहता है। उत्पादक उत्पादन की तकनीक, विज्ञापन, वस्तु की माँग, श्रम विभाजन, वृहत् बचतें आदि की जानकारी चाहता है । अर्थशास्त्र यह कार्य बहुत आसानी से करता है। इस शास्त्र में इन सभी का विस्तृत अध्ययन होता है । यह शास्त्र उत्पादक को साधनों का आदर्शतम प्रयोग भी सिखाता है। इसके अध्ययन से उत्पादक कम लागत श्रेष्ठ व अधिक उत्पादन कर सकता है ।2. व्यापारियों को लाभ – अर्थशास्त्र के अध्ययन से व्यापारी को भी लाभ प्राप्त होते हैं। सरकार की आर्थिक नीतियों, करारोपण, बजट आदि का व्यापारी अध्ययन करके अपने व्यापार को समायोजित कर सकता है। बाजार की दशाओं का अध्ययन करके वह अपनी वस्तुओं को महँगे स्थानों पर विक्रय कर सकता है। हम कह सकते हैं कि एक व्यापारी अर्थशास्त्र के अध्ययन के बिना अपने व्यापार का सफल संचालन कर ही नहीं सकता ।3. श्रमिकों को लाभ – अर्थशास्त्र के अध्ययन करने से श्रमिकों की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है। श्रम व पूँजी में मधुर सम्बन्ध का निर्माण अर्थशास्त्र करता है। इसके अध्ययन .से श्रमिकों का जीवन-स्तर ऊँचा उठता है । अर्थशास्त्र एक ऐसा शास्त्र है जो श्रमिकों को उनके कर्तव्य व अधिकारों की जानकारी प्रदान करता है ।4. उपभोक्ता को लाभ – अर्थशास्त्र का अध्ययन एक उपभोक्ता को यह सिखाता है कि वह अपने सीमित साधनों से अधिकतम सन्तुष्टि कैसे प्राप्त कर सकता है । यह शास्त्र उपभोक्ता को मितव्ययिता का गुण सिखाता है । पारिवारिक बजट का ज्ञान, वस्तु क्रय का ज्ञान तथा आय का सदुपयोग अर्थशास्त्र ही सिखाता है ।5. कृषकों को लाभ-किसानों के लिये अर्थशास्त्र का अध्ययन बहुत महत्वपूर्ण होता है । भारतीय किसानों के लिये अर्थशास्त्र का अध्ययन बहुत जरूरी है। इसकी सहायता से वे कम लागत पर अधिक उत्पादन कर सकते हैं। उत्पादन की आधुनिक तकनीक, सहकारी साख संस्थाओं की जानकारी यह शास्त्र प्रदान करता है, जो कृषक के लिये जरूरी है।

    10 / यशराज व्यावसायिक अर्थशास्त्र6. राजनीतिज्ञों को लाभ- अर्थशास्त्र के अध्ययन से राजनीतिज्ञ भी लाभान्वित होते हैं। राजस्व नीति का ज्ञान उन्हें अर्थशास्त्र ही प्रदान करता है। आर्थिक विकास की जानकारी विदेशी व्यापार की जानकारी अर्थशास्त्र के अध्ययन से ही प्राप्त होती है। सत्तारूढ़ दल तथा विरोधी दल दोनों को ही अर्थशास्त्र की जानकारी होनी चाहिये। अर्थशास्त्र अर्थव्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने में मदद करता है। यह एक वित्त मंत्री को श्रेष्ठ कर की जानकारी देता है। विभिन्न योजनाओं की सफलता अर्थशास्त्र के अध्ययन में ही निहित है। 7. समाज सुधारकों को लाभ एक समाज सुधारक को देश की सामाजिक आर्थिक स्थिति की जानकारी होना चाहिये, अन्यथा वह सही दिशा में समाज सुधार का कार्य नहीं कर सकेगा। सामाजिक समस्याओं के पीछे आर्थिक कारण मौजूद होते हैं। समाज सुधारक अर्थशास्त्र का अध्ययन करके, इन समस्याओं को समाप्त करने के लिये उचित उपाय प्रस्तुत कर सकते हैं । 8. विद्यार्थियों को लाभ- यदि एक विद्यार्थी बैंकर, एकाउण्टेण्ट या मैनेजर बननाचाहता है, तो उसे अर्थशास्त्र का ज्ञान अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। यदि विद्यार्थी चाहता है ऐसे क्षेत्र में अपनी सेवाएँ दे तो उसे अर्थशास्त्र अच्छा मार्गदर्शन प्रदान कर सकता है।भारत में अर्थशास्त्र का महत्वभारत एक कृषि प्रधान देश है। जहाँ की जनसंख्या समस्या प्रबल है । पूँजी शर्मिली है। . व्यापारी अपनी प्रारम्भिक जोखिमों को उठाने में असमर्थ है। देश का औद्योगिक विकास असन्तुलित है। निर्धनता अपनी चरम सीमा पर है । कृषि मानसून के इशारे पर चलती है। ऐसे हालात में अर्थव्यवस्था केवल अर्थशास्त्र के सहारे ही जीवित रह सकती है । अर्थशास्त्र का अध्ययन उद्योगों की प्रगति, प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि करता है । गरीबी मिटाने के लिये ठोस योजनाएँ प्रदान करता है। देश में रोजगार के अवसर प्रदान करता है । प्रत्येक भारतवासियों के लिये अर्थशास्त्र का अध्ययन लाभदायक है।अर्थशास्त्र केवल धन बनाने वाला विज्ञान नहीं है बल्कि मानव कल्याण को प्रभावित करने वाला शास्त्र भी है ।लघुउत्तरीय प्रश्न ( Short Answer Type Questions) प्रश्न 6. अर्थशास्त्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि संक्षेप में लिखिए । Write in brief to historical background of Economics. इसके उत्तर के लिये प्रश्न क्र. 1 ध्यान से पढ़ें। उत्तर- ९प्रश्नउत्तर-व्यष्टि एवं समष्टि अर्थशास्त्र की पारस्परिक निर्भरता बताइए । State the Inter-dependence of Micro and Macro Economics. इसके उत्तर के लिये प्रश्न क्र. 4 ध्यान से पढ़ें।अतिलघुउत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)प्रश्न 8. उत्तर- व्यष्टिगत अर्थशास्त्र की विशेषताएँ बताइये | State the characteristics of micro economics. व्यष्टि अर्थशास्त्र की विशेषताएँ व्यष्टि अर्थशास्त्र की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-. 1. व्यक्तिगत इकाइयों का अध्ययन- इसमें व्यक्तिगत आय, व्यक्तिगत उत्पादन व्यक्तिगत उपभोग एवं व्यक्तिगत फर्म आदि व्यक्तिगत इकाइयों का अध्ययन किया जाताहै।

  • BA 1st Year Idea of Bharat chaptar 2 समय और अंतरिक्ष की भारतीय अवधारणा (Indian Concept of Time and Space) Notes

    2समय और अंतरिक्ष की भारतीय अवधारणा (Indian Concept of Time and Space)प्रश्न 5. समय और अंतरिक्ष की भारतीय अवधारणा का उल्लेख कीजिए। Describe the Indian Concept of Time and Space. उत्तर- सामान्यतः ‘समय’ व ‘अंतरिक्ष’ दो अलग-अलग शब्द और अलग-अलग धारणाएँ दिखती हैं, जबकि दोनों का घनिष्ठ सम्बन्ध है। बिना अंतरिक्ष की अवधारणा, समझे समय को नहीं जान सकते, तो बिना समय के अंतरिक्ष का ज्ञान अपूर्ण है। प्राचीन भारतीय विद्वानों एवं वैज्ञानिकों ने समय एवं अंतरिक्ष अवधारणाओं को एकसाथ ही, एक-दूसरे से जुड़े रूप में समझा और अध्ययन किया है। कारण कि समय की अवधारणा अंतरिक्ष, ब्रह्मांड, उसके ग्रहों की चाल एवं घूर्णन गति के आधार पर ही निर्धारित होती है।समय और अंतरिक्ष की भारतीय अवधारणासमय का प्रत्यय उतना ही पुराना है, जितना कि सृष्टि। समय का प्रत्यय मानवीय भोध के साथ ही सृजित हो चुका था। हालाँकि सृष्टि के विकास में समय के योगदान को जल के बाद आँका जाता है। नासदीय सूक्त के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति जल कसे मानी गई है। जल ही आदि महाभूत है। इस धारणा के अनुसार सृष्टि निर्माण में सहायक बना। पंचअग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश में जल सर्वप्रथम आया, तत्वों का विकास हुआ है। यह सीधे-सीधे अनुभव से जन्मा दर्शन था। जल से प्रकृति आया, उसी से बाकी हरियाती है, जीवन संभव हो पाता है अतः प्राणतत्व की पहलीआवश्यकता है। ऋग्वेदबी.ए. प्रथम वर्ष /में प्राकृतिक सत्ताओं के प्रति श्रद्धाभाव से विकसित बहुदेववाद है, मगर सृष्टि की प्रथम कारक सत्ता होने के कारण जल सबसे महत्वपूर्ण है। डॉ. राधाकृष्णन के अनुसारऋग्वेद की प्रवृत्ति एक सीधा-सादा-सरल यथार्थवाद है, (वह) केवल एक जल की ही परिकल्पना करता है, वही आदिमहाभूत हैं, जिससे धीरे-धीरे दूसरे तत्वों का विकास हुआ (भा.द. पृष्ठ 83 )। लेकिन सृष्टि की रचना अकेले जल द्वारा संभव न थी, जल की अवस्था से आकाश, अग्नि, जल, वायु के विकास के बीच सुदीर्घ अंतराल है।नासदीय सूक्त के अनुसार आरंभ में न दिन था न रात। इसलिए समय का बोध कराने वाले भूत-भविष्य आदि का भी लोप था। इस तरह महाशून्य अवस्था से दिनरात से भरपूर ब्रह्मांड में आने के बीच जो लाखों-करोड़ों वर्ष बीते, उनसे समय की उपस्थिति स्वतः सिद्ध है। अतः कहा जा सकता है कि सृष्टि के निर्माण में पंच तत्वों के सहयोग के अलावा समय का भी योगदान रहा। वैदिक ऋषियों को लगा होगा कि सतत् परिवर्तनशील जगत की व्याख्या के लिए अंतरिक्ष अपर्याप्त है। उससे सृष्टि के विस्तार और व्याप्ति की परिकल्पना तो संभव है, मगर चराचर जगत की परिवर्तनशीलता एवं क्रमानुक्रम की व्याख्या के लिए, कुछ ऐसा भी होना चाहिए जो अंतरिक्ष जैसा अनादि अनंत होकर भी वस्तुजगत की गतिशीलता की परख करने में सक्षम हो अंतिरक्षनुमा होकर भी उससे भिन्न हो, जिसमें वह अपने होने को सार्थक कर सके। अपनी चेतना को दर्शा सके। जिसके माध्यम से घटनाओं के क्रम तथा उनके वेग आदि की व्याख्या भी संभव हो। जो सकल ब्रह्मांड के चैतन्य का साक्षी, उसकी गतिशीलता का परिचायक एवं संवाहक हो । |अंतरिक्ष : एक आभासी संरचनाअंतरिक्ष एक आभासी संरचना है। वह ग्रह-नक्षत्रों तथा तरह-तरह के गतिमान पिड़ों को अपने भीतर समाए रहता है। कह सकते हैं कि गतिमान पिंडों की स्थिति तथा उनका अंतराल हमें अंतरिक्ष का आभास कराते हैं, तदनुसार अंतरिक्ष वह त्रिविमीय आभासी संरचना है जो विभिन्न प्रकार के छोटे-बड़े पिंडों, कणों को अपने भीतर समाहित रखता है। उनके भीतरी बाहरी, भौतिक अथवा काल्पनिक अंतराल की प्रतीति कराता है। उनकी गतिशीलता के लिए पर्याप्त आकाश देता है। दूसरी ओर समय महज एक विमीय संरचना है। उसका गुण है कि वह ब्रह्मांड में पल-छिन घटने वाली कोटिक घटनाओं का साक्षी बन सके। वह दो या उससे अधिक घटनाओं के क्रमानुक्रम, बारंबारता, अंतराल तथा उनके आपसी सम्बन्धों का बोध कराता है। यह भी कह सकते हैं कि घटनाओं का वेग, मानव मस्तिष्क द्वारा उन घटनाओं को सहेजने का क्रम तथा उनका अंतरात समयबोध का निर्माण करते है। व्यवहार में समय आभासी मगर सापेक्ष सत्ता दूसरी ओर समय की निरपेक्षता के समर्थन में भी अनेकानेक उल्लेख शास्त्रों में मौजूद है। यह माना जाता रहा कि समय बाह्य प्रभावों, दृश्य-अदृश्य घटनाओं से मुक्त है, वह घटनाओं पर नियंत्रण रखता है, मगर स्वयं किसी से प्रभावित नहीं होता, इसलिए उसकी गति सदैव एक समान बनी रहती है। यह धारणा भी बनी रही कि चराचर जगत में जो कुछ बनता मिटता है, समय उसका साक्षी है। काल नहीं मिटता, हम ही बनते-6 / यशराज आइडिया ऑफ भारतमिटते हैं- कहकर समय की परमसत्ता को स्वीकृति दी गई। उसे अजेय माना गया। – एकेश्वरवादी चिंतन में ईश्वर के अतिरिक्त समय या उस जैसी शाश्वत सत्ता को परिकल्पना, ईश्वर की सर्वोच्चता पर प्रश्नचिह्न लगाती थी। अतएव परमात्मा की सर्वोच् को दर्शाने के लिए गीता में श्रीकृष्ण ने कहा- ‘कालऽस्मिः’ मैं ही समय हूँ। यहाँ काल समस्त घटनाओं के आगार, विराट ब्रह्मांडीय विस्तार का द्योतक है। वह श्रीकृष्ण के मुख से उच्चारित हुआ है, इसलिए वह विराट शक्ति का भी बोध देता है। समय के साथ बीतना, गुजरने, घटित होने जैसी प्रतीतियाँ सहज रूप से जुड़ी हुई है। उसे परिवर्तनशील माना गया है। मगर परमसत्ता की महत्ता को रेखांकित करने के लिए यत्र-तत्र उसको कालातीत भी कहा जाता है। सृष्टि निर्माण में समय के योगदान को स्वीकार करते हुए प्राचीन आचार्यों ने लिखा है- ‘जल की अवस्था से उन्नत होकर इस जगत का विकास समय, संवत्सर अथवा वर्ष, इच्छा या काम एवं बुद्धिरूपी पुरुष तथा राम की शक्तियों से हुआ था’ (भा. द. पृष्ठ 83)। इसमें समय तथा ‘संवत्सर अथवा वर्ष को अलग-अलग लिखा हुआ है, जबकि व्यवहार में संवत्सर और वर्ष समय के की मात्रक है।समय से संबंधित दो धारणाएँउपर्युक्त अध्ययन से सिद्ध होता है कि समय को लेकर वैदिक आचार्यों की दो स्पष्ट प्रतीतियाँ थी, पहली उसे अनंत, ब्रह्मांडनुमा सत्ता मानती थी। उसके अनुसार समय स्थिर, विचलहीन और अनंत विस्तारयुक्त सत्ता माना गया, जिसमें सब कुछ घटता हता है। जो घटनाओं का क्रमानुक्रम मात्र न होकर अंतहीन त्रिविमीय फैलाव है। चराचर जगत का सहयात्री न होकर सर्वस्व द्रष्टा है, जिसका न आदि है न अंत। जो इतना विस्तृत है कि कोटिक कोटि ग्रह-नक्षत्र – निहारिकाएँ उसमें सतत् गतिमान रहती हैं- या जो कोटिक घटनाओं, गतियों का एकमात्र द्रष्टा एवं साक्षी है। दूसरी प्रतीति के अनुसार समय भूत, माता भविष्य के रूप में परिलक्षित होने वाली, नदी-सम निरंतर प्रवाहशील संरचना है। घटनाओं के साथ घटते जाना उसका स्वभाव है। वह न केवल के का साक्षी है, बल्कि उनका हिसाब भी रखता है, मगर है आदिउनकी शुरुआत है, न ही अंत। समय को लेकर ये दोनों ही धारणाएँ भी उसी रूप में विद्यमान हैं। इस तरह यह संभवत: अकेली अवधारणा बारे में अनुष्य के विचारों में शुरू से आज तक बहुत कम परिवर्तन हुआ है, कि जब तक दर्शन का विषय था, तब तक उसे लेकर वस्तुनिष्ठ विशेषकर जैन और बौद्ध दर्शन में समय की सत्ता पर गम्भीर के दार्शनिक वैज्ञानिक पक्ष पर विचार करने के बजाय विहोता रहा। आगे चलकर जीवन में स्पर्द्धा और तो पांगापंडितों ने समय को प्रारब्ध से जोड़ दिया। को मान लिया गया। इससे मानवमन में समय के प्रति उसके पीछे समय को जानने की वांछा, काम, डर औरकीबी.ए. प्रथम वर्षदुष्प्रभाव यह हुआ कि उसे लेकर दार्शनिक चिंतन लगभग ठहर सा गया, इससे उन पोंगापंथियों को सहारा मिला जो समय को लेकर लोगों को डराते थे।समय की उत्पत्ति सम्बन्धी धारणालसमय का बोध मानवीय बोध के साथ जन्मा और उतना ही पुराना है। सवाल है कि समय की उत्पत्ति कब हुई- क्या समयबोध के साथ अथवा उससे पहले? इस मामले में वैदिक ऋषि और वैज्ञानिक दोनों एकमत थे कि समय का जन्म सृष्टि के जन्म के साथ हुआ। उससे पहले समय की कोई सत्ता नहीं थी। हालाँकि दोनों की मान्यताओं का आधार अलग-अलग है। स्वाभाविक रूप से वैज्ञानिक इसकी व्याख्या तार्किक आधार पर करना चाहते हैं, जबकि वैदिक आचार्यों का दृष्टिकोण अध्यात्म-प्रेरित था। अंतरिक्षीय महाविस्फोट द्वारा सृष्टि-रचना के सिद्धान्त में विश्वास रखने वाले वैज्ञानिक मानते हैं कि उससे पहले ब्रह्मांड अति उच्च संपीडन की अवस्था में था। इस तरह विज्ञान की दृष्टि में ब्रह्मांड और समय दोनों एक ही घटना का परिणाम हैं, जिसे वैज्ञानिक महाविस्फोट का नाम देते हैं। इसलिए ‘समय का संक्षिप्त इतिहास’ लिखने के बहाने स्टीफन हाकिंग जैसे वैज्ञानिक प्रकारांतर में इस ब्रह्मांड का ही इतिहास लिख रहे होते हैं। ब्रह्मांड के जन्म की घटना से पहले समय की उपस्थिति को नकारना वैज्ञानिकों की मजबूरी थी क्योंकि उससे पहले समय की उपस्थिति स्वीकार करने के लिए उनके पास कोई तार्किक आधार नहीं था। समय ही प्रतीति ‘घटित होने’ से जुड़ी हुई है और उच्च संपीडन की अवस्था में घटना का आधार ही गायब था। ऐसा कोई कारण नहीं था जिससे समय की उपस्थिति प्रमाणित हो सके। समय के बारे में एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक दृष्टिकोण आइंस्टाइन के शोध में मिलता है। सापेक्षिकता के सिद्धान्त की खोज के बाद घटना विशेष के सन्दर्भ में दिन और काल को अपरिवर्तनशील एवं निरपेक्ष मानना संभव नहीं रह गया था। वे प्रभावशाली मात्राएँ बन गई थीं, जिनका स्वरूप पदार्थ और ऊर्जा पर निर्भर था, सापेक्षिकता सिद्धान्त महाविस्फोट से पहले समय की सम्भावना को नकारता है। उसके अनुसार समय और दिक् की परिपकल्पना केवल ब्रह्मांड के भीतर रहकर संभव है, उससे पहले चूंकि घटनाओं के बारे में कुछ भी दावे के साथ नहीं कहा सकता, अतएव यह माना गया कि समय की परिकल्पना केवल ब्रह्मांड की सम्भावनाओं में संभव है। इसके बावजूद समय की निरपेक्ष तस्वीर कुछ वैज्ञानिकों को आज भी लुभाती है, हालाँकि 1915 में इंस्टीन द्वारा ‘जनरल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी’ का क्रांतिकारी सिद्धान्त पेश होने के बाद उस पर दृढ़ रहना आसान नहीं रह गया था। सापेक्षिकता के सिद्धान्त को स्वीकृति मिलने के बाद स्पेस और टाइम किसी घटना के स्थिर आधार जैसे अपरिवर्तनशील और निरपेक्ष नहीं रह गए, बल्कि वे बेहद प्रभावशाली मात्राएँ बन गई, जिनकी रूपरेखा पदार्थ हम होती है। यह मान लिया गया कि दिक, काल की व्याख्या केवल डीद सीमाओं में संभव है, तदनुसार ब्रह्मांड के जन्म से पहले दिकू, काल की नकुल बेमानी हो गया। यह निरीश्वरवादी परिकल्पना थी, जिसके समर्थक जैन और बौद्ध दर्शन थे।8 / यशराज आइडिया ऑफ भारतसमय की उत्पत्ति के सम्बन्ध में वैदिक मनीषियों का दृष्टिकोण सर्वथा भिन्न • समय और सृष्टि की उत्पत्ति को एक-दूसरे से जोड़ना उनके आस्थावादी मन के लिए जरूरी था। जहाँ वैज्ञानिक महाविस्फोट से पहले समय की परिकल्पना करने से इसलिए हिचकते हैं कि उसके लिए उनके पास उपर्युक्त तर्कों का अभाव है, और उसको विरुद्ध कर पाना फिलहाल असंभव है, वहीं आस्थावादी दार्शनिकों की समस्या थी कि समय को पूर्व अथवा समानांतर सत्ता मान लेने से उसकी सर्वेश्वरवादी व्याख्याएँ संकट में पड़ने लगती हैं। सर्वशक्तिमान परमात्मा की परिकल्पना तो असंभव हो जाती है, इसलिए ऋग्वेद में कहा गया, ‘वह काल की, देश की, आयु, मृत्यु और अमरता आदि सबको पहुँच के बाहर और उनसे परे है। हम इसकी ठीक-ठीक व्याख्या नहीं कर सकते, सिवाय इसके कि यह अस्तित्व रखती है (भा. द. पृष्ठ 81 ) । यह एक प्रकार का रहस्यवाद ही था, इस संकट से उबरने की कोशिश बौद्ध दर्शन में दिखाई पड़ती है। उसके अनुसार समय चिरंतन है, मनुष्य की भाँति वस्तुजगत का भी समय निर्धारित है, समय की सुदीर्घ अंतराल में ब्रह्मांड भी बनते मिटते रहे हैं।नासदीय सूक्त में उद्गाता ऋषि ब्रह्मांड की उत्पत्ति की कल्पना शून्य से करता है “नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्, किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नः किमासीन्दहनं गभीरम् ।” इसका सरल पद्यात्मक अनुवाद यशदेव शल्य द्वारा किया गया है, लेकिन हम मैक्समूलर द्वारा किए गए अनुवाद को लेना चाहेंगे, जिसे डॉ. राधाकृष्णन ने ‘भारतीय दर्शन’ खंड-एक में उद्धृत किया है, उसके अनुसार- समय न तो संत था, न ही असत्, न आकाश विद्यमान था, न ही उसके ऊपर अंतरिक्ष, तब किसने उसे आवृत कर रखा था, वह कहाँ था? किसके आश्रय में रखता था ? क्या वह आदिकालीन गहन-गम्भीर जल था ? जिसमें समाहित था सबकुछ, मृत्यु का अभाव था। इस कारण अमरताबोध अजन्मा ही था जिसके माध्यम से दिन और रात का होना निश्चित किया जा सके। केवल और केवल ब्रह्म था, बिना श्वांस-प्रश्वांस की प्रक्रिया के जीवित रहने वाला बाकी था अंधकार, घोर अंधकार, तब फिर कौन जानता है कि सृष्टि कहाँ को हुई? जिससे इस सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ, उसने इस सृष्टि को बनाया या नहीं बनाया, जाँचे से ऊंचे अंतरिक्षलोक में, ऊँचे से ऊँचा देखने वाला, वही यथार्थ रूप में जानता है, अमन क्या वह भी नहीं जानता ? सृष्टि के उत्स को जानने के बहाने असल में यह निराकार ब्रह्म की कल्पना थी, जो बहुदेववाद की आलोचनाओं के बीच आवश्यक हो चुकी श्री परमात्मा सृष्टि की कारक सत्ता है, इसलिए वह उससे पहले है। किसी को देश हो, इसलिए ऋग्वेद में यह नासदीय सूक्त से पहले, हिरण्यगर्भ कम से स्पष्ट कर दी जाती है। हिरण्यगर्भ सूक्त में उद्गाता मुनि ब्रह्मांड की उत्पत्ति के सूक्त से पहले भी स्थिति की कल्पना करते हुए लिखता है- हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः साधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ।’ वह था, परन्तु क्या या? इस बारे में दावे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता उसकी अभ्यर्थना करते हैं। यह भी एकेश्ववाद की ओर संकेत रहस्यवादी कल्पना है। उद्गाता ऋषि कल्पना की उड़ान भरते भरते विराट शून्य में तल्लीन-सा प्रतीत होता है। और अव्याख्यीय को परमात्मा का fee हमनाम देकर तसल्ली कर लेता है।8 / यशराज आइडिया ऑफ भारतसमय की उत्पत्ति के सम्बन्ध में वैदिक मनीषियों का दृष्टिकोण सर्वथा भिन्न था, • समय और सृष्टि की उत्पत्ति को एक-दूसरे से जोड़ना उनके आस्थावादी मन के लिए जरूरी था। जहाँ वैज्ञानिक महाविस्फोट से पहले समय की परिकल्पना करने से इसलिए हिचकते हैं कि उसके लिए उनके पास उपर्युक्त तर्कों का अभाव है, और उसको सिद्ध कर पाना फिलहाल असंभव है, वहीं आस्थावादी दार्शनिकों की समस्या थी कि समय को पूर्व अथवा समानांतर सत्ता मान लेने से उसकी सर्वेश्वरवादी व्याख्याएँ संकट में पड़ने लगती हैं। सर्वशक्तिमान परमात्मा की परिकल्पना तो असंभव हो जाती है, इसलिए ऋग्वेद में कहा गया, ‘वह काल की, देश की, आयु, मृत्यु और अमरता आदि सबकी पहुँच के बाहर और उनसे परे है। हम इसकी ठीक-ठीक व्याख्या नहीं कर सकते, सिवाय इसके कि यह अस्तित्व रखती है (भा.द. पृष्ठ 81 )। यह एक प्रकार का रहस्यवाद ही था, इस संकट से उबरने की कोशिश बौद्ध दर्शन में दिखाई पड़ती है। उसके अनुसार समय चिरंतन है, मनुष्य की भाँति वस्तुजगत का भी समय निर्धारित है, समय की सुदीर्घ अंतराल में ब्रह्मांड भी बनते – मिटते रहे हैं।नासदीय सूक्त में उद्गाता ऋषि ब्रह्मांड की उत्पत्ति की कल्पना शून्य से करता है- “नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्, किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीन्दहनं गभीरम् ।” इसका सरल पद्यात्मक अनुवाद यशदेव शल्य द्वारा किया गया है, लेकिन हम मैक्समूलर द्वारा किए गए अनुवाद को लेना चाहेंगे, जिसे डॉ. राधाकृष्णन ने ‘भारतीय दर्शन’ खंड-एक में उद्धृत किया है, उसके अनुसार- समय न तो सत था, न ही असत्, न आकाश विद्यमान था, न ही उसके ऊपर अंतरिक्ष, तब किसने उसे आवृत कर रखा था, वह कहाँ था ? किसके आश्रय में रखता था ? क्या वह आदिकालीन गहन-गम्भीर जल था ? जिसमें समाहित था सबकुछ, मृत्यु का अभाव था। इस कारण अमरताबोध अजन्मा ही था जिसके माध्यम से दिन और रात का होना निश्चित किया जा सके। केवल और केवल ब्रह्म था, बिना श्वांस-प्रश्वांस की प्रक्रिया के जीवित रहने वाला बाकी था अंधकार, घोर अंधकार, तब फिर कौन जानता है कि सृष्टि कहाँ से हुई ? जिससे इस सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ, उसने इस सृष्टि को बनाया या नहीं बनाया, ऊँचे से ऊँचे अंतरिक्षलोक में, ऊँचे से ऊँचा देखने वाला, वही यथार्थ रूप में जानता है, अथवा क्या वह भी नहीं जानता ? सृष्टि के उत्स को जानने के बहाने असल में यह निराकार ब्रह्म की कल्पना थी, जो बहुदेववाद की आलोचनाओं के बीच आवश्यक हो चुकी थी। परमात्मा सृष्टि की कारक सत्ता है, इसलिए वह उससे पहले है। किसी को कोई संदेह न हो, इसलिए ऋग्वेद में यह नासदीय सूक्त से पहले, हिरण्यगर्भ सूक्त के माध्यम से स्पष्ट कर दी जाती है। हिरण्यगर्भ सूक्त में उद्गाता मुनि ब्रह्मांड की उत्पत्ति से पहले की स्थिति की कल्पना करते हुए लिखता है- हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ।’ वह था, परन्तु क्या था? किस रूप में था ? इस बारे में दावे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता उसकी अभ्यर्थना करते हैं। यह भी एकेश्ववाद की ओर संकेत रहस्यवादी कल्पना है। उद्गाता ऋषि कल्पना की उड़ान भरते-भरते विराट शून्य में तल्लीन-सा प्रतीत होता है और अव्याख्यीय को परमात्मा का नाम देकर तसल्ली कर लेता है। हमबी. ए. प्रथम वर्ष / 9वैदिक साहित्य में समय को लेकर जो आस्थावादी दृष्टिकोण बना, सहस्त्राब्दियों तक बना रहा। उपनिषदों में समय को लेकर चर्चा हुई, परन्तु उसी समर्पण भाव के साथ समय की सत्ता को स्वीकारते हुए। ब्रहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्कय भी समय के बारे में वैदिक दृष्टिकोण को ही आगे रखते हैं- ‘हे गार्गी! वह जो अंतरिक्ष से ऊपर है, और वह जो पृथ्वी के भी नीचे है, वह जिसे मनुष्य भूत, वर्तमान और भविष्य कहते हैं, उस सबकी रचना अंदर और बाहर देश के अन्तर्गत है । किन्तु फिर इस देश की रचना भीतर और बाहर किसके अंदर हुई ? हे गार्गी! सत्य के अंदर, इस अविनाशी के अंदर, के अंदर और बाहर गुंथा हुआ है’ (बृहदारण्यक 3-6-7)।सब देश एक अन्य स्थान पर ऋग्वेद में ब्रह्म का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि वह काल की मर्यादा से स्वतंत्र है, अर्थात् वह अनित्य है, जिसका न आदि है न अंत अथवा वह एक तात्कालिक अवधि है जिसे एक नियमित काल-व्यवधान की आवश्यकता नहीं, वह भूत् और भविष्यत् के विचार से मुक्त है। वेदादि धर्मग्रंथों में अनादि, अनश्वर, कालातीत, अमर जैसे विशेषण बार-बार आते हैं, उसके पीछे एकमात्र कारण था, मृत्यु का भय । इसलिए आस्थावादी दर्शन का बड़ा हिस्सा मृत्यु के चंगुल से बाहर निकल जाने की कोशिश तक सिमटा हुआ है, साफ है कि ‘अमरताबोध’ जैसी परिकल्पना के पीछे भी मृत्यु भय निहित था, मृत्यु तथा आकस्मिक रूप से आ धमकने वाली आपदाओं ने ही समय के प्रति डर को जन्म दिया था। अमरत्व की कल्पना का एकमात्र आशय था, समय के साथ अनंतकाल तक बने रहने की सुविधा या फिर समय की पकड़ के बाहर आकर अनंत में बने रहने की प्रतीति, लेकिन जब आप मृत्यु अथवा उसके पार जाने के लिए कथित अमरता की कल्पना कर रहे होते हैं, तो प्रकारांतर में अंतहीन समय की परिकल्पना कर, उसे भी अमरत्व प्रदान कर रहे होते हैं, आस्थावादी दार्शनिकों के लिए यह कोई समस्या ही नहीं थी, इसलिए ऐसी कल्पनाएँ प्रायः हर धर्म ग्रंथ का हिस्सा बनी है।श्वेताश्वरोपनिषद कतिपय बाद की रचना है, मगर उसमें भी समय को लेकर इसी प्रकार का आस्थावादी दृष्टिकोण सामने आता है। परमसत्ता की स्थिति की कल्पना करते हुए उपनिषदकार लिखता है- ‘वहाँ फिर न दिन रहता है, न रात रहती है, न कोई अस्तित्व रहता है, और न कोई अनस्तित्व रहता है- केवल ईश्वर रहता है, इसका भी सीधा सा अर्थ है कि ईश्वर पर समय का कोई असर नहीं पड़ता, वह उसकी से पकड़ दरअसल समय पर निरपेक्ष सत्ता के रूप में विचार करना वैदिक ऋषियों की प्राथमिकता थी भी नहीं। गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर हम पाएँगे कि वैदिककाल में दर्शन का स्तर अपेक्षाकृत स्थूल था, भारतीय दर्शनों में समय को लेकर थोड़ा बहुत वस्तुनिष्ठ चिंतन मिलता भी है तो केवल बौद्ध और जैन दर्शन में, जैन दर्शन में संसार की समस्त ‘वस्तुओं को ‘जीव’ और ‘अजीव’ दो श्रेणियों में रखा गया है। ‘जीव’ में समस्त प्राणी ‘समुदाय आता है, ‘अजीव’ वर्ग में आकाश, पुद्गल, धर्म, अधर्म के अलावा ‘काल’ को भी सम्मिलित किया गया है। ‘अजीव’ को कहीं-कहीं अर्द्धद्रव्य से भी संबोधित किया गया है। तदनुसार ‘काल’ भी अर्द्धद्रव्य है, ‘यह विश्व की वह सर्वव्यापक आकृति है, जिसके द्वारा संसार की समस्त गतियाँ सूत्रबद्ध है। यह एक व्यवधानपूर्ण परिवर्तनों की श्रृंखलाओं का केवल जोड़मात्र नहीं है, किन्तु स्थिरता की एक प्रक्रिया है- भूत् एवं10 / यशराज आइडिया ऑफ भारतवर्तमान काल को चिरस्थायी बनाना है, इसमें समय सम्बन्धी दोनों धारणाएँ सम्मिलित दिखाई पड़ता है।संर्वदर्शन संग्रह में अंतरिक्ष और काल को समानधर्मा माना गया है, उसके अनुसार अंतरिक्ष और काल दोनों सर्वव्यापी है, इसके बावजूद दोनों में अंतर है। अंतरिक्ष चतुर्विमीय संरचना है, जबकि काल एकपक्षीय विस्तार। सर्वदर्शन संग्रह के अनुसार काल का अस्तित्व तो है, किन्तु उसमें कायत्व अथवा विशालता का अभाव है। एक पक्षीय होने के कारण इसमें विस्तार नहीं है। जैन ग्रंथ ‘पंचास्तिकारसमयसार’ में समय को लेकर गहन चिंतन मिलता है। देखा जाए तो यही वह ग्रंथ है जिसमें समय के बारे में आधुनिक चिंतन की सच्ची झलक मौजूद है। पंचास्तिकारसमयसार समय को नित्यकाल और सापेक्षकाल में बाँटता है, नित्य काल निराकार एवं आदि-अंत से सर्वथा मुक्त है, जबकि सापेक्षकाल समय के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण। नित्यकाल का न आदि है न ही अंत। दूसरी ओर सापेक्षकाल का आदि भी है तथा अंत भी। सुविधा के लिए उसको घंटे, मिनट आदि में भी विभाजन किया जा सकता है, ‘नित्यरूप काल को हम ‘काल’ के नाम से एवं सापेक्षकाल को ‘समय’ के नाम से पुकारते हैं। काल समय का महत्वपूर्ण कारण है। वर्तन अथवा परिवर्तन की निरंतरता परिणाम द्वारा अनुमान की जाती है (पंचास्तिकायसमयसार89)। सापेक्ष समय का निर्णय परिवर्तनों अथवा वस्तुओं के अंदर गति के द्वारा होता है। यह परिवर्तन अपने आपमें निरपेक्षकाल के कार्य हैं (पंचास्तिकायसमयसार – 107-108) 1 काल को चक्र अथवा पहिया या घूमने वाला कहा जाता है। चूँकि काल की गति से सब पदार्थों की आकृति का विलयन संभव होता है, नई आकृतियाँ जन्म ले पाती हैं अतएव काल को संहारकर्ता भी कहा गया है। बौद्ध मतावलंबी भी समय को अंतविहीन मानते हैं, बौद्ध विद्वान धर्मकीर्ति के अनुसार संसार सतत् प्रवाह है, इसका न आदि है न ही अंत, इसलिए समय का भी न आदि है न अंत।प्रकट में, अपने-अपने आग्रहों के फलस्वरूप विज्ञान और दर्शन दोनों ही सृष्टि समय की उपस्थिति को नकारते हैं, विज्ञान मानता है महाविस्फोट से पहले समय का कोई अस्तित्व नहीं था । ब्रह्मांड अतिउच्च संपीडन की अवस्था में रात-दिन का अस्तित्व ही नहीं था, महाविस्फोट के साथ ब्रह्मांड का जन्म हुआ और अगले ही क्षण वह तेजी से फैलने लगा। सेकंड के बेहद सूक्ष्म हिस्से के भीतर ब्रह्मांड का आकार दोगुना हो गया। उसके बाद तो यह और भी तीव्र गति से फैलने लगा। आगे चलकर आकाशगंगाएँ बनीं, सौरमंडल अस्तित्व में आया, लेकिन वैज्ञानिक भी इतना तो मानते ही हैं कि महाविस्फोट से पहले ब्रह्मांड उच्च संपीडित अवस्था में था। भले ही इतनी सघनावस्था में कि दिनरात आदि का अस्तित्व ही संभव न हो परन्तु महाविस्फोट से पहले भी कुछ था ।लघुउत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)प्रश्न 6. ‘समय’ प्रत्यय उतना ही पुराना है, जितनी सृष्टि । स्पष्ट कीजिए। The concept of Time is as old as the Universe. Clarity. उत्तर- (नोट- इसके लिए प्रश्न क्र. 5 का उत्तर देखें।)

  • BA 1st Year Idea of Bharat chaptar 1 भारतवर्ष को समझना भारत के पर्यायों की शाश्वतता (Understanding of Bharatvarsh; Eternity of Synonyms Bharat) Notes

    इकाई-प्रथमUNIT-FIRSTभारतवर्ष को समझना; भारत के पर्यायों की शाश्वतता समय और अन्तरिक्ष की भारतीय अवधारणाभारत की इतिहास दृष्टिभारतीय साहित्य का गौरवभारतवर्ष को समझना भारत के पर्यायों की शाश्वतता (Understanding of Bharatvarsh; Eternity of Synonyms Bharat)प्रश्न Explain the concept of Bharatvarsha.1. भारतवर्ष की अवधारणा समझाइए ।उत्तर- भारतवर्ष की अवधारणा (Concept of Bhartvarsha) भारत को एक सनातन राष्ट्र माना जाता है, क्योंकि यह मानव सभ्यता का पहला राष्ट्र है। श्रीमद्भागवत के पंचम स्कंध में भारत की स्थापना का वर्णन आता है। भारतीय दर्शन के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति के पश्चात् ब्रह्मा के मानस पुत्र स्वयंभु मनु ने व्यवस्था संभाली। इनके दो पुत्र प्रियव्रत तथा उत्तानपाद थे। उत्तानपाद भक्त ध्रुव के पिता थे। प्रियव्रत के दस पुत्र थे, लेकिन उनमें से तीन पुत्र बाल्यकाल से ही विरक्त थे, अतः प्रियव्रत ने पृथ्वी को सात भागों में बाँटकर, एक-एक भाग प्रत्येक पुत्र को सौंप दिया। इन्हीं में से एक थे आग्नीध्र, जिन्हें जम्बूद्वीप का शासन कार्य सौंपा गया। आग्नीध्र में वृद्धावस्था में अपने नौ पुत्रों को जम्बूद्वीप के विभिन्न नौ स्थानों का शासन दायित्व सौंपा। इन नौ पुत्रों में सबसे बड़े थे नाभि । नाभि को हिमवर्ष का भू-भाग मिला। इन्होंने हिमवर्ष के नाम अजनाथ से जोड़कर उसका नाम अजनाभवर्ष प्रचारित किया। यह हिमवर्ष या अजनाभवर्ष ही प्राचीन भारत देश है।राजा नाभि के पुत्र थे ऋषभ। ऋषभदेव के सौ पुत्रों में भरत ज्येष्ठ एवं सबसे गुणवान थे। ऋषभदेव ने वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करने पर अपने पुत्र भरत को राजपाट सौप दिया। पहले भारतवर्ष का नाम ऋषभदेव के पिता नाभिराज के नाम पर अजनाभवर्ष प्रसिद्ध था। भरत के नाम से ही लोग अजनाभखण्ड को भारतवर्ष कहने लगे।भारत के प्राचीन साहित्य में भारत को पाँच भागों में बाँटे जाने का उल्लेख मिलता है। सिन्धु तथा गंगा के मध्य में मध्य प्रदेश था। ब्राह्मण ग्रंथों के अनुसार यह भू-भाग सरस्वती नदी से प्रयाग, काशी तक और बौद्ध ग्रंथों के अनुसार राजमहल तक फैला हुआ[1]

    2 / यशराज आइडिया ऑफ भारतथा। इसी क्षेत्र का पश्चिमी भाग ‘ब्रह्मऋषि देश’ कहलाता है। पतंजलि ने इस समस्त भाग को आर्यावर्त कहा है। स्मृति ग्रंथों में आर्यावर्त हिमालय और विंध्य पर्वत के बीच बताया गया है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार मध्य प्रदेश के उत्तर में उत्तरापथ (उदीच्य), पश्चिम में ‘अपरान्त’ (प्रतीच्प) दक्षिण में ‘दक्षिणापथ’ (दक्खिन) और पूर्व में ‘प्रादेश (प्राची) थे।भारतवर्ष के नौ भेद मत्स्य पुराण में इस प्रकार बताये गए हैं- इन्द्रद्वीप, कर ताम्रपर्णी, गर्भस्तिमान, नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व, वारूण और सागर। व्यापार और संस्कृति के प्रसार से भारत के लोग जहाँ-जहाँ भी गए, वहाँ वह लोग उसे भारत ही समझने लगे। परन्तु वह सब भारत का हिस्सा नहीं था। भौगोलिक दृष्टिकोण से कश्मीर से लंका की सीमा तक और कश्मीर से असम तक ही भारत का सही भू-भाग था, जिसका प्रमाण हमें ग्रंथों में मिलता है।आदिगुरु शंकराचार्य ने देश के चार कोनों-चार दिशाओं में चार पीठों की स्थापनाकी थी। केदार, द्वारिका, पुरी तथा शृंगेरी (मैसूर) में पीठ स्थापित किये। वर्तमान भारत (अधिकारिक नाम भारत गणराज्य) दक्षिण एशिया में स्थित भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा देश है। भौगोलिक दृष्टि से भारत विश्व का सातवाँ बड़ा देश है, जबकि जनसंख्या की दृष्टि से चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा देश है।भारत के पश्चिम में पाकिस्तान, उत्तर-पूर्व में चीन, नेपाल और भूटान, पूर्व में बांग्लादेश व म्यांमार स्थित हैं। हिन्द महासागर में इसके दक्षिण-पश्चिम में मालदीव, दक्षिण में श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व में इंडोनेशिया से भारत की सामुद्रिक सीमा लगती है। भारत के उत्तर में हिमालय पर्वत तथा दक्षिण में हिन्द महासागर स्थित है। दक्षिणपूर्व में बंगाल की खाड़ी और पश्चिम में अरब सागर है।भारत देश का नाम ‘भारत’ क्यों रखा गया ?भारत देश का नाम भारत या भारतवर्ष पड़ने या कहने के सम्बन्ध में विभिन्न अवधारणाएँ या मत हैं। ‘श्रीमद्भागवत् पुराण’ में वर्णित एक कथा के अनुसार ‘भारत’ नाम मनु के वंशज तथा ऋषभदेव के बड़े पुत्र प्राचीन सम्राट भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा। कुछ विद्वानों के अनुसार दुष्यंत के पुत्र राजा भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत रखा गया। कुछ मतों के अनुसार महाभारत से इस देश को ‘भारत’ जाने लगा। हालांकि अधिकांश विद्वानों के अनुसार इस देश का नाम ऋषभदेव के सम्राट भरत के नाम पर ही ‘भारत’ देश का नामकरण हुआ है।भारत के पर्याय(Synonyms of Bharat)प्रश्न 2. भारत के पर्यायों की शाश्वतता पर एक टिप्पणी लिखिए। Write a note on eternity of synonyms Bharat. उत्तर- भारत देश विश्व के सबसे प्राचीनतम देशों में से है। इसे ‘भारत’ के अलावा अन्य नामों से भी जाना या पुकारा जाता रहा है। प्राचीन साहित्य में भारतवर्ष को

    भारतभूमि’ की संज्ञा दी गई है। इसे जम्बूद्वीप का एक भाग माना गया है। इसे ‘हिन्दुस्तान’ कहकर सम्बोधित किया है, तो यूनानियों ने इसे ‘इण्डिया कहा। आर्यों के निवास के कारण भारत को ‘आर्यावर्त’ के नाम से भी पुकारा गया। सिन्धु प्रदेश प्राचीनतम सभ्यता का स्थल रह चुका है और सिन्धु का अपभ्रंश ‘हिन्दू’ होने से भारत को कई लोग ‘हिन्द’ या ‘हिन्दभूमि’ भी कहते थे।जम्बूद्वीप में स्थित होने कारण ‘जम्बूद्वीप’ भी कहा गया। इसके साथ ही भारतवर्ष, हिमवर्ष, अजनाभवर्ष का नाम भी भारत के लिए सम्बोधित किये जाते हैं।भारत के उक्त पर्याय आज भी विभिन्न रूपों में, विभिन्न सन्दर्भों में किये जाते हैं। प्राचीन साहित्य एवं इतिहास के लेखक व पाठक, सांस्कृतिक चिंतक आज भी भारत का नाम ‘भारतवर्ष’, आर्यावर्त, भारतभूमि, हिन्दुस्तान, हिन्द से सम्बोधित करते है। भौगोलिक दृष्टि से जम्बूद्वीप तो ग्रीक व्यवहार से आर्यावर्त के रूप में भारत की आज भी पहचान है। इसके साथ ही भारत के उक्त सभी पर्यायों की सार्थकता के प्रमाण आज भी विद्यमान हैं। अतः हम कह सकते हैं कि ‘भारत’ के साथ ही उसके पर्यायों की भी शाश्वतता विद्यमान है।लघुउत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)प्रश्न 8.भारत का संक्षिप्त परिचय दीजिए।Give the short introduction of Bharat.(नोट- इसके लिए प्रश्न क्र. 1 का उत्तर देखें।)भारत की भौगोलिक स्थिति बताइए।उत्तर-प्रश्न 4.Describe the geographical position of Bharat.(नोट- इसके लिए प्रश्न क्र. 1 का उत्तर देखें।)उत्तर-अति लघुउत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)उत्तर-भारत का ‘भारत’ नाम कैसे पड़ा? How did ‘Bharat’ get the name ‘Bharat ? (नोट- इसके लिए प्रश्न क्र. 1 का उत्तर देखें।) भारत के पर्याय लिखिए। Write the Synonyms of Bharat. (नोट- इसके लिए प्रश्न क्र. 2 का उत्तर देखें।)वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)भारत का भारतवर्ष’ नाम किसके कारण पड़ा-के कारण(ब) दुष्यंत के पुत्र भरत के कारणमनु के कारण(द) ऋषभदेव के पुत्र सम्राट भरत के नाम पर

    है में140/ यशराज आइडिया ऑफ भारत (स) चार आदि शंकराचार्य ने कितने पीठों की स्थापना की थी- (अ) दो (ब) तीन (द) सात (अ) हिन्दुस्तान (ब) इंण्डिया (द) यह सभी भारत देश के पर्याय हैं- (स) अजनाभवर्ष आर्यों के निवास स्थान के कारण भारत को यह भी कहा जाता है- (अ) हिन्दुस्तान (स) आर्यावर्त (अ) सम्राट भरत (स) कृष्ण (ब) इण्डिया (द) हिमवर्ष पौराणिक रूप से भारत के आदि प्रमुख कौन माने जाते हैं- (ब) मनु (द) चन्द्रगुप्त मौर्य उत्तर1. (द), 2. (स), 3. (द), 4. (स), 5. (ब) 1 2 उत्तर- समय और अंतरिक्ष की भारतीय अवधारणा (Indian Concept of Time and Space) प्रश्न 5. समय और अंतरिक्ष की भारतीय अवधारणा का उल्लेख कीजिए। Describe the Indian Concept of Time and Space. सामान्यतः ‘समय’ व ‘अंतरिक्ष’ दो अलग-अलग शब्द और अलग-अलग धारणाएँ दिखती हैं, जबकि दोनों का घनिष्ठ सम्बन्ध है। बिना अंतरिक्ष की अवधारणा, समझे समय को नहीं जान सकते, तो बिना समय के अंतरिक्ष का ज्ञान अपूर्ण है। प्राचीन भारतीय विद्वानों एवं वैज्ञानिकों ने समय एवं अंतरिक्ष अवधारणाओं को एकसाथ , एक-दूसरे से जुड़े रूप में समझा और अध्ययन किया है। कारण कि समय की अवधारणा अंतरिक्ष, ब्रह्मांड, उसके ग्रहों की चाल एवं घूर्णन गति के आधार पर ही निर्धारित होती है। समय और अंतरिक्ष की भारतीय अवधारणा समय का प्रत्यय उतना ही पुराना है, जितना कि सृष्टि। समय का प्रत्यय मानवीय के साथ ही सृजित हो चुका था। हालाँकि सृष्टि के विकास में समय के योगदान जाल के बाद आँका जाता है। नासदीय सूक्त के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति जल मानी गई है। जल ही आदि महाभूत है। इस धारणा के अनुसार सृष्टि निर्माण में सहायक बना। पंच तत्वों अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश में जल सर्वप्रथम आया, उसी से बाकी का विकास हुआ है। यह सीधे-सीधे अनुभव से जन्मा दर्शन था। जल से प्रकृति हरियाती है, जीवन संभव हो पाता है अतः प्राणतत्व की पहली आवश्यकता है। ऋग्वेद शाम्भ लहाशिव5.हीके3.बोध को सेतत्वों2.4

  • BA 1st Year Idea of Bharat Chapter 4 भारतीय साहित्य का गौरव‎‎(The‎‎Glory of Indian Literature) Notes

    भारतीय साहित्य का गौरव‎‎(The‎‎Glory of Indian Literature)‎‎

    प्रश्न 12. प्राचीन भारतीय साहित्य के गौरव पर एक निबन्ध लिखिए। Write an essay on the glory of Ancient Indian Literature.‎‎प्रश्न अथवा‎‎प्राचीन भारतीय साहित्य के गौरव का परिचय दीजिए। Give the introduce of Ancient Indian Literature.‎‎प्राचीन भारतीय साहित्य का गौरव‎‎भारतीय साहित्य को भाषा, भौगोलिक क्षेत्र, राजनीतिक एकता, सामाजिक, आध्यात्मिक विशिष्टता के साथ-साथ इस देश की जनता के आधार पर है।‎‎करते प्राचीन भारतीय साहित्य भारतीय संस्कृति एवं समाज के लिए एक गौरव रहा है। थ, जैसे वेद, स्मृतियाँ, पुराण, महाकाव्य यह सब अपने आप में कोई सभी भारतीय संस्कृति एवं भारतीय जीवन को दर्शाने का कार्य हमारे भारतीय साहित्य का गौरव हैं।‎‎भारतीय साहित्य का गौरव कहे जाने वाले वेद, पुराण, स्मृतियाँ आदि का परिचय यहाँ दिया जा रहा है‎‎.‎‎उत्तर-‎‎3.‎‎2.‎‎1.‎‎16 / यशराज आइडिया ऑफ भारत वेद‎‎वेद हिन्दू धर्म के सबसे प्राचीन और पवित्र ग्रंथ माने जाते हैं। इनमें मंत्री अनुष्ठान का संग्रह मिलता है। हिन्दू ऋषियों ने इस ज्ञान को इतना पवित्र माना कि ल समय तक उन्होंने इन्हें लिखित रूप में नहीं दिया। उन्होंने अपनी स्मृति में उन्हें संरक्षि किया और मौखिक शिक्षा के माध्यम से उन्हें योग्य शिष्य को सिखाया। जैसा कि उ श्रवण के माध्यम से सीखा गया था, न कि पढ़ने से, इस ज्ञान के सत्य को श्रुति के स में जाना जाने लगा, जिसका शाब्दिक अर्थ श्रवण है।‎‎समय के दौरान इन श्रुतिओं को इकट्ठा करने और संकलित करने की आवश्यक महसूस की गई। यह कार्य महान् ऋषि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने किया था। वेदों में संकलन के अपने विशाल कार्य को मान्यता देते हुए इस संत को नाम दिया गया वेदव्या और उनका जन्मदिन आज भी गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। वेदों को चार भागों में बाँटा गया है‎‎ऋग्वेद – इसमें ज्यादातर देवताओं इंद्र, अग्नि और सोम जैसे देवताओं का आहा करने के लिए मंत्रों और स्तोत्र के बारे में वर्णन किया गया है। गायत्री मंत्र का उल्लेख इसी वेद में मिलता है तथा विविध औषधियों का उल्लेख भी इस ऋग्वेद में मिलता है। यजुर्वेद-इसमें यज्ञों और हवनों का विधान मिलता है। अश्वमेघ यज्ञ जैसे यह का उल्लेख भी इसी ग्रंथ में मिलता है।‎‎सामवेद-साम का अर्थ रूपांतरण कह सकते हैं। इसमें संगीत यानी गायन के माध्यम को महत्व दिया गया है। इसमें ज्यादातर मंत्रों का उल्लेख ऋग्वेद से लिया गया है। इंद्रदेव और अग्निदेव के बारे में वर्णन मिलता है।‎‎अथर्ववेद-सांसरिक महत्वाकांक्षाओं के लिए जादू मंत्र, जैसे तंत्र-मंत्र के साथ चमत्कार, रहस्यमय क्रिया का इस ग्रंथ में उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि यह वेद उपरोक्त तीनों से काफी बाद में लिखा गया था।‎‎उपरोक्त भाग में से प्रत्येक में दो खंड होते हैं- संहिता, जिसका अर्थ है ‘भजन और ‘ब्राह्मण’, जो इन भजनों को बताता है, और निर्देश देता है कि उनका उपयोग कैसे और कब करना है। वेदों में चार अति महत्वपूर्ण वक्तव्य हैं। इन्हें महावैयाया या बड़ेबड़े वाक्य कहा जाता है। इन चार में से तीन हर आत्मा की दिव्यता की बात करते हैं। और चौथा परमात्मा के स्वरूप की बात करता है।‎‎उपवेद, उपांग‎‎प्रतिपदसूत्र, अनुपद, छन्दोभाषा (प्रातिशाख्या), धर्मशास्त्र, न्याय तथा वैशेषिकये 6 दर्शन उपांग ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं। आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेदये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद कात्यायन ने बतलाए हैं। 1.‎‎स्थापत्यवेद-स्थापत्यकला के विषय, जिसे वास्तुशास्त्र या वास्तुकला भी कहा जाता है, इसके अन्तर्गत आता है। 2. धनुर्वेद‎‎-युद्ध कला का‎‎विवरण इसमें आता है। इसके ग्रन्थ विलुप्तप्रायः‎‎हैं।‎बी. ए. प्रथम वर्ष / 17‎‎3. गन्धर्वेद – गायन कला का वर्णन है।‎‎4. आयुर्वेद – वैदिक ज्ञान पर आधारित स्वास्थ्य विज्ञान का वर्णन है।‎‎(वेद के अंग )‎‎वेदांग वेदों के सर्वांगीण अनुशीलन के लिए शिक्षा (वेदांग), निरुक्त, व्याकरण, छन्द और कल्प (वेदांग), ज्योतिष के ग्रन्थ हैं, जिन्हें 6 अंग कहते हैं। अंग के विषय इस प्रकार हैं-‎‎1. शिक्षा- ध्वनियों का उच्चारण। 2. निरुक्त-शब्दों का मूल भाव। इनसे वस्तुओं का ऐसा नाम किसलिए आया इसका विवरण है। शब्द-मूल, शब्दावली और शब्द निरुक्त के विषय हैं। 3. व्याकरण- सन्धि, समास, उपमा, विभक्ति आदि का विवरण। वाक्य निर्माण को समझने के लिए आवश्यक ।‎‎4. छन्द- गायन या मंत्रोच्चारण के लिए आघात और लय के लिए निर्देश । 5. कल्प-यज्ञ के लिए विधिसूत्र । इसके अन्तर्गत श्रीतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र और कार्य सम्पन्न करना और समर्पण करने में इनका महत्व है।‎‎शुल्बसूत्र । वेदोक्त 6. ज्योतिष – समय का ज्ञान और उपयोगिता। आकाशीय पिण्डों (सूर्य, पृथ्वी, नक्षत्रों) की गति और स्थिति से। इसमें वेदांग ज्योतिष नामक ग्रन्थ प्रत्येक वेद के अलगअलग थे। अब लगधमुनि प्रोक्त चारों वेदों के वेदांग ज्योतिषों में दो ग्रन्थ ही पाए जाते है- एक आर्च पाठ और दूसरा याजुस् पाठ। इस ग्रन्थ में सोमाकार नाम विद्वान के प्राचीन भाव्य मिलता है, साथ ही कौण्डिन्नायायन संस्कृत व्याख्या भी मिलती है।‎‎पुराण हिन्दू धर्म के वेदों को गहराई से समझना काफी कठिन है। वे ज्यादातर लोगों को समझने के दायरे से बाहर हैं। भारत के ऋषियों ने उन्हें रोचक और आसानी से समझ में आने वाले तरीके से प्रस्तुत करने के लिए पुराणों नामक एक विशेष प्रकार का साहित्य तैयार किया। पुराणों में लिखित ज्ञान को कहानियों और दृष्टान्तों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है, जिससे वाचक आसानी से समझ सके पुराणों की संख्या 18 हैं। वे पुराण है-‎‎निम्नानुसार मत्स्य पुराण, कुरम पुराण, वराह पुराण, गरुड़ पुराण, ब्रह्मा पुराण, विष्णु पुराण, पद्म पुराण, शिव पुराण, भागवत् पुराण, स्कन्द पुराण, लिंग पुराण, अग्नि पुराण, वायु पुराण, मार्कण्डेय पुराण, नारद पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, भविष्य पुराण । पुराणों में वर्णित भगवान विष्णु के दस अवतार मानव जाति को सिखाते हैं कि भगवान ने विभिन्न अवतारों में पृथ्वी पर प्रकट होकर समय-समय पर अन्याय और बुरी ताकत का नाश करके धर्म को फिर से स्थापित किया है।‎‎उपनिषद उपनिषदों को वेदान्त भी कहा जाता है और वे दार्शनिक, आध्यात्मिक और वैदिक दर्शन का सार है। वर्तमान में उपलब्ध 108 उपनिषदों में से निम्नलिखित सबसे लोकप्रिय है-‎‎‎18 / यशराज आइडिया ऑफ भारत‎‎(1) ईश उपनिषद्, (2) ऐतरेय उपनिषद, (3) कठ उपनिषद्, (4) केन उपनिष (5) छान्दोग्य उपनिषद, (6) प्रश्न उपनिषद, (7) तैत्तिरीय उपनिषद, (8) बृहदारण्य उपनिषद, (9) मांडूक्य उपनिषद, (10) मुण्डक उपनिषद । विद्वानों ने निम्न तीन को प्रमाण कोटि में रखा है-‎‎(1) श्वेताश्वतर, (2) कौषीतकि, (3) मैत्रायणी।‎‎शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, निम्बार्काचार्य, माधवाचार्य और बल्लभाचार्य ने हमे उपनिषदों को पवित्र ज्ञान ग्रंथ के रूप में माना है और उनकी व्याख्या की है ताकि उ अपने सिद्धान्तों के अनुरूप बनाया जा सके।‎‎स्मृतियाँ‎‎वैदिक शास्त्र ही प्राचीनतम सत्य हैं। वेदों को छोड़कर सभी शास्त्र स्मृति श्रे में आते हैं और पुराणों और महाकाव्यों को इसमें शामिल करते हैं। स्मृति शब्द व तकनीकी अर्थ है- हिन्दुओं के लिए नियम पुस्तिका या आचार संहिता या नियमावली इन प्राचीन विधि-पुस्तकों में मनु की विधि-पुस्तक (मनुस्मृति) का भी उल्लेख किय गया है।‎‎प्रमुख स्मृतियाँ निम्नानुसार हैं-‎‎मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, अत्रि स्मृति, विष्णु स्मृति, हारित स्मृति, औशनस स्मृति अंगिरा स्मृति, यम स्मृति, कात्यायन स्मृति, बृहस्पति स्मृति, पाराशर स्मृति, व्यास स्मृति स्मृति, गौतम स्मृति, वशिष्ठ स्मृति, आपस्तम्ब स्मृति, संवर्त स्मृति, शंख स्मृति, लिखि स्मृति देवल स्मृति, शतातप स्मृति आदि।‎‎महाकाव्य‎‎वैदिक साहित्य के पश्चात् जिन साहित्यिक ग्रन्थों या रचनाओं का अत्यन्त महत् माना गया है, ये है महाकाव्य दो प्रमुख महाकाव्य हैं- रामायण और महाभारत। रामाय आदि कवि वाल्मीकि द्वारा संस्कृत भाषा में की गई है। जिसमें अयोध्या के राज के पुत्र श्रीराम की कथा का वर्णन है। महाभारत की रचना वेदव्यासजी द्वारा क कैरव एवं पांडवों का कथानक है, जिनके बीच विश्व प्रसिद्ध ‘महाभारत का युद्ध हुआ था। यह दोनों महाकाव्य दो अलग-अलग युगों के घटनाक्रम को दर्शा त्रेतायुग की कथा है, तो ‘महाभारत’ द्वापर युग की।‎‎धर्म के साहित्य के पश्चात् बौद्ध धर्म का साहित्य आता है। बौद्ध धार्मिक विशेष उल्लेखनीय है-‎‎ग्रंथ-विनयपिटक, सुतपिटक और अधिधम्मपिटक। विनयपिटक क्षुणियों के दैनिक जीवन सम्बन्धी विधि-नियम और निषेध है उपदेश, सिद्धान्त, आख्यान, उदाहरण और कथानक है। 1 विवेचन उच्चतर व्याख्या और दर्शन के रूप में हैं। । की संख्या 549 है। इनमें कहानियों के रूप में बौद्ध ध तिकता के नियम समझाए गए हैं। बुद्ध के पूर्व जन्म की घटनाओं‎बी. ए. प्रथम वर्ष / 19‎‎का विवरण भी जातकों में हैं। इन जातक ग्रन्थों से बौद्ध युग की सामाजिक, राजनीतिक दशा पर प्रकाश पड़ता है।‎‎और आर्थिक 3. पालि बौद्ध ग्रन्थ- पालि भाषा में लिखे हुए बौद्ध धर्म के ग्रन्थों में भी इतिहास की सामग्री है। इनमें मिलिन्द पन्हो, दीपवंश और महावंश मुख्य हैं। मिलिन्द पन्हों में यूनानी नरेश मोनेण्डर (मिलिन्द) और बौद्ध भिक्षु नागसेन का धार्मिक विषयों पर वार्तालाप है। यह ईसा के पहली शताब्दी के जनजीवन पर प्रकाश डालता है। दीपवंश और महावंश दोनों ही काव्य है और लंका के बौद्ध ग्रंथ हैं। महावंश में चन्द्रगुप्त मौर्य का वर्णन है। भी हैं, जैसे महावस्तु,‎‎4. संस्कृत बौद्ध ग्रन्थ-संस्कृत में लिखे हुए कई बौद्ध-ग्रंथ ललित विस्तार, बुद्ध चरित्र, सौदानन्द काव्य, दिव्यावदान आदि। महावस्तु और ललित विस्तार में बुद्ध का जीवन वृत्त है। यह तत्कालीन धार्मिक व सामाजिक जीवन से अवगत कराता है। बुद्ध चरित्र अश्वघोष का महाकाव्य है। दिव्यावदान में अशोक के उत्तराधिकारियों से लेकर पुष्यमित्र शुंग तक का वर्णन है।‎‎जैन साहित्य जैन धर्म के धार्मिक ग्रन्थों में भी प्रचुर ऐतिहासिक सामग्री बिखरी पड़ी है। इन जैन धार्मिक ग्रन्थों की रचना और संकलन ईसा की पहली सदी से छठी सदी तक भिन्न-भिन्न हुआ। इन ग्रन्थों में निम्नलिखित मुख्य हैं-‎‎कालों में 1. परिशिष्ट वर्णन-यह सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रन्थ है, जिसकी रचना हेमचन्द्र सूरि ने की।‎‎आचार्य 2. भद्रबाहु चरित्र – भद्रबाहु प्रसिद्ध जैन विद्वान साधु थे। इस ग्रन्थ में चन्द्रगुप्त मौर्य का विवरण है।‎‎युग 3. जैन आगम ग्रन्थ-इनमें प्रमुख स्थान बारह अंगों का है। इन अंगों में महावीर के सिद्धान्त, जैन भिक्षुओं के आचार, नियमों का उल्लेख, विविध प्रवचन, महावीर के जीवन और उनके कार्य, प्रख्यात भिक्षु के जीवन और निर्वाण का विवरण, उपासक जीवन निषेदों और आचार-विचारों का संग्रह है।‎‎के 4. व्याख्या ग्रन्थ और टीका ग्रन्थ-विविध जैन मुनियों और विद्वानों ने जैन धर्मग्रन्थों पर संस्कृत में व्याख्या-ग्रन्थ और टीका ग्रन्थ भी लिखे हैं। इनमें भी तत्कालीन जीवन की ओर संकेत मिलते हैं।‎‎विधि-‎‎अन्य साहित्य धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त अनेक ऐसे ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं, जो किसी धर्म से सीधा सम्बन्ध नहीं रखते अथवा किसी धर्म विशेष से प्रभावित नहीं है। धर्मनिरपेक्ष साहित्य को विभाजित किया जा सकता है-‎‎कल्पना प्रधान लोक-साहित्य एवं जीवन-चरित्र-विदेशियों द्वारा भारत के विषय में लिखे गए वर्णन के अतिरिक्त सम्पूर्ण धर्मनिरपेक्ष साहित्य इसी शीर्षक के कुछ प्रमुख ग्रन्थ, जो ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्व रखते हैं।‎‎अर्थशास्त्र- इस श्री रचना चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री चाणक्य ने ई.पू.‎20 / यशराज आइडिया ऑफ भारत‎‎चौथी शताब्दी में की थी। तत्कालीन शासन व्यवस्था पर इस ग्रन्थ से व्यापक प्रकाश पड़ता है। राजनीति, कूटनीति एवं शासन प्रबन्ध पर यह एक उत्कृष्ट कृति मानी जाती है। मौर्यकाल के विषय में जानकारी देने वाली यह सबसे प्रमाणिक पुस्तक है।‎‎मुद्राराक्षस-इस नाटक की रचना विशाखदत्त ने की थी। इसमें नन्द राजा के पतन तथा चाणक्य द्वारा चन्द्रगुप्त को राजा बनाए जाने का उल्लेख है। इस नाटक की रचना सातवीं शताब्दी में हुई थी।‎‎कालिदास की रचनाएँ-कालिदास द्वारा रचित ग्रन्थों से तत्कालीन संस्कृति पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। ‘मालविकाग्निमित्र’ में पुष्यमित्र व यवनों के मध्य हुए युद्ध का भी उल्लेख है।‎‎हर्षचरित – हर्षचरित की रचना सातवीं सदी में बाणभट्ट ने की थी। इस ग्रन्थ से हर्षकालीन प्रत्येक प्रमुख घटना की जानकारी प्राप्त होती है। इस ग्रन्थ का विशेष ऐतिहासिक महत्व है।‎‎गार्गी संहिता- इसमें भारत पर यवनों के आक्रमण का उल्लेख है। राजतरंगिणी – राजतरंगिणी का रचनाकार कल्हण नामक विद्वान थे। इस ग्रन्थ से कश्मीर के इतिहास के विषय में विशेष रूप से जानकारी प्राप्त होती है। इस ग्रन्थ की रचना बारहवी शताब्दी में हुई थी।‎‎प्रश्न 13. ‘वेद साहित्य’ पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिए। Write a shortly note on Ved Literature.‎‎वेद क्या है ? समझाइए । What are Veds ? Explain.‎‎अथवा‎‎उत्ता-‎‎वेद‎‎’वेद’ प्राचीन भारत के पवित्र साहित्य हैं, जो हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी है। वेद, विश्व के सबसे प्राचीन साहित्य भी हैं। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन वर्णाश्रम धर्म के, मूल और सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं। वेद शब्द संस्कृत भाषा के बिंदु ज्ञाने धातु से बना है। इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ ‘ज्ञान’ है। इसी धातु से ‘विदित’ (जाना हुआ), ‘विद्या’ (ज्ञान), ‘विद्वान’ (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं। वेदों के प्रकार या चतुर्वेद‎‎ॠग्वेद को चारों वेदों में सबसे प्राचीन माना जाता है। इसको दो प्रकार में बाँटा गया है। प्रथम प्रकार में इसे 10 मण्डलों में विभाजित किया गया है। मण्डलों को सूक्तों में कुछ ऋचाएँ होती है। कुल ऋचाएँ 10627 हैं। ऋग्वेद में 64 अध्याय हैं। को मिलाकर एक अष्टक बनाया गया है। ऐसे कुल आठ अष्टक अध्याय को वर्गों में विभाजित किया गया है। वर्गों की संख्या भिन्न-भिन्न -भिन्न ही है। कुल वर्ग संख्या 2024 है। प्रत्येक वर्ग में कुछ मंत्र होते.‎‎है।‎‎

  • B.A. 1st year Idea of Bharat Chaptar 3 ‎भारत की इतिहास दृष्टि (Indian View of History ) Notes

    भारत की इतिहास दृष्टि (Indian View of History )‎‎प्रश्न 9. भारत की इतिहास दृष्टि की विवेचना कीजिए।‎‎उत्तर- Discuss the Indian view of History. भारत की सभ्यता एवं संस्कृति संसार की प्राचीनतम सभ्यताओं एवं संस्कृतियों में से है। जिस समय यूरोपीय लोग कबीलों के रूप में रहते थे, तब भी भारतभूमि पर सभ्यता का सूरज जगमगा रहा था। ऐसे में स्वाभाविक है कि इतिहास की दृष्टि से भी भारत का इतिहास, इतिहास लेखन और इतिहास दृष्टि विश्व की उच्च सभ्यता एवं संस्कृति से प्राचीन ही होगी। लेकिन विभिन्न पाश्चात्य इतिहासकारों का आरोप रहा है कि प्राचीनकाल में भारतीयों के इतिहास लेखन, इतिहास दृष्टि का अभाव रहा है। उनका यह भी आरोप रहा है कि भारतीयों की घटनाओं के चित्रण में कोई रूचि नहीं थी। जबकि, यह आरोप न केवल निराधार है, अपितु भारतीय लेखकों तथा चिन्तकों के चिन्तन, मनन तथा लेखक के दृष्टिकोण को न समझ पाने का दुष्परिणाम है।‎‎12 / यशराज आइडिया ऑफ भारत‎‎भारत की इतिहास दृष्टि‎‎इतिहास को देखने-समझने और लिखने के दृष्टिकोण को ही इतिहास दृष्टि कहा जा सकता है। भारत में और भारतीयों में प्राचीनकाल से इतिहास के प्रति रुचि भी रहो है और इतिहास को लिखने व समझने का ज्ञान भी रहा है। लेकिन, लिखने की उनको दृष्टि, उनका दृष्टिकोण, यूरोपीय इतिहासकारों से भिन्न रहा है। प्राचीन भारतीय लेखको एवं विद्वानों की लेखन दृष्टि समय तथा समाज की परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं के अनुरूप रचना करने की रही है। उनके अनुसार इतिहास एक निरन्तर चलायमान युगचक्र है। मानव-जीवन, उसके सुख-दुःख इसी चक्र द्वारा नियंत्रित और संचालित होते हैं। इस दृष्टि या दृष्टिकोण से प्राचीन काल में कई बड़े-बड़े ग्रंथों की रचना की गई है। प्राचीनकाल के साहित्य का अम्बार भरा पड़ा है, जिसमें न सिर्फ इतिहास है अपितु जीवन जीने का तरीका, जीवन-मूल्यों को जानने के तरीके, इतिहास में घटी घटनाओं के साथ ही उनके कारण और परिणामों की भी विवेचना की गई है। उन ग्रंथों में प्रमुख रूप से है- वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत, अर्थशास्त्र आदि। इन ग्रंथों में न केवल तात्कालिक समाज का चित्रण है, अपितु जीवन दर्शन भी है।‎‎इसके विपरीत, यूरोपीय इतिहासकारों की इतिहास दृष्टि मात्र घटनाओं का वर्णन करना रहा है। और, इसी रूप में जब उन्होंने प्राचीन भारतीय ग्रंथों को देखा तो उन्हें (मात्र) इतिहास नजर नहीं आया। जबकि, भारतीय ग्रंथों में इतिहास के साथ ही इतिहास से कहीं अधिक अधिक दर्शन भरा पड़ा है।‎‎भारत की प्राचीन इतिहास दृष्टि को कुछ और बिन्दुओं में स्पष्ट किया जा सकता है, जो निम्नानुसार है-‎‎1. धार्मिक दर्शन प्रधान लेखन-धार्मिक दर्शन के रूप में प्राचीन भारत के विद्वानों ने पर्याप्त साहित्य की रचना की है। धर्म, धार्मिक प्रथाओं, कर्म और धार्मिक क्रिया विधियों के सन्दर्भ में पर्याप्त लेखन कार्य प्राचीन युग में किया गया। इन विद्वानों ने आत्मा, परमात्मा और धर्म की अवधारणा के सम्बन्ध में भी अपने विचार प्रस्तुत किए। उन्होंने आध्यात्मिक दृष्टिकोण पर भी अत्यधिक बल दिया। इन सबका विशद वर्णन प्राचीन इतिहास दर्शन के अन्तर्गत मिलता है।‎‎2. आध्यात्मिक दृष्टिकोण-प्राचीन भारतीय लेखकों ने अपने इतिहास लेखन में मुख्य रूप से आत्मा की शुद्धता, चरित्र और नैतिक मूल्यों के सन्दर्भ में लिखने पर विशेष बल दिया है। निःसन्देह उन्होंने लोगों के सामाजिक जीवन का वर्णन भी अपने ग्रंथों में किया है परन्तु उसमें उनका दृष्टिकोण पूरी तरह नैतिकतापूर्ण दिखाई पड़ता है। उन्होंने अच्छाई और बुराई के मध्य अन्तर को स्पष्ट करने का प्रयास किया। वे चाहते थे कि लोग सन्तुष्ट जीवन व्यतीत करें। उन्होंने लौकिक के स्थान पर पारलौकिक जीवन पर अधिक बल दिया और लोगों को श्रेष्ठ कार्य करने की प्रेरणा प्रदान की, जिससे वे आवागमन के बन्धन से मुक्त हो जायें और मोझ प्राप्त करें। इस प्रकार उन्होंने भौतिकवाद, व्यापार और वाणिज्य, समृद्धि और आर्थिक जीवन के सन्दर्भ में अत्यन्त न्यून वर्णन किया है। उनके वर्णन में सत्य एवं काल्पनिक घटनाओं को इस प्रकार मिश्रित कर दिया गया था कि दोनों के मध्य अन्तर कर पाना अत्यन्त कठिन हो गया।‎‎बी. ए. प्रथम वर्ष / 13‎‎3. आलोचनात्मक दृष्टिकोण के प्रति अरुचि-प्राचीन भारतीय लेखकों में आलोचनात्मक और विश्लेषणात्मक गुणों का अभाव था, जिसके कारण उनके द्वारा इतिहास कथात्मक कहा जा सकता है। उन्होंने उन्हीं तथ्यों को स्वीकार कर लिया जिसका वर्णन उनके पूर्वगामी और समकालीन विद्वानों द्वारा किया गया था। उन्होंने उपलब्ध साक्ष्यों की विश्वसनीयता को प्रभावित करना आवश्यक नहीं समझा। चूँकि प्राचीनकाल में साक्ष्यों का अभाव था और जो कुछ ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध थी, उसकी वास्तविकता को प्रमाणित करना अत्यन्त कठिन था। समस्त सामग्री दूर-दूर तक फैली हुई थी, जो अभिलेखों और स्तम्भों पर उत्कीर्ण थी और जिसकी कोई अन्य प्रतिलिपि उपलब्ध नहीं थी। ऐसी स्थिति में इतिहासकारों ने अपनी कल्पना शक्ति को अधिक महत्व देते हुए अपनी कृतियों को पूर्ण किया जो इतिहास लेखन में एक दोष कहा जा सकता है।‎‎4. शाही दरबार का वर्णन-प्राचीन भारत में विद्वानों और लेखकों को शासकों का संरक्षण व आश्रय प्राप्त था जो समय-समय पर उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान करते थे, इसलिए उनके वर्णन का प्रमुख विषय अधिकतर शाही दरबार ही होता था, जिसकी चकाचौध, शासकों की जीवन शैली और युद्धों का वर्णन वह अपनी कृतियों में करते थे । अपने लेखन में इतिहासकारों ने युद्ध में प्रयोग किए जाने वाले आयुधों एवं युद्धकला का भी उल्लेख किया। अतः स्पष्ट संरक्षण प्राप्त लेखकों ने अपना ध्यान मुख्यतः शाही दरबार की ओर आकर्षित किया और सामाजिक जीवन व अन्य पहलुओं के प्रति उदासीनता का प्रदर्शन किया। परन्तु इसके होते हुए कुछ अनाश्रित इतिहासकारों ने तत्कालीन सामाजिक जीवन और रीति-रिवाजों का वर्णन अपनी कृतियों में किया।‎‎5. आदर्शबाद प्रधान लेखन-प्राचीन भारतीय लेखन दृष्टि यह पूर्णरूपेण प्रदर्शित करती है कि विद्वानों ने आदर्शवाद के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान की थी और उन आदर्शों का उल्लेख किया जो एक शासक या आदर्श राज्य अथवा आदर्श नागरिक से अपेक्षित है। अपने लेखन में उन्होंने शासकों के दायित्वों के साथ-साथ नागरिकों के कर्तव्यों का उल्लेख किया है तथा शासक, माता-पिता और गुरु के गुणों पर भी प्रकाश साथ ही तत्कालीन विद्वानों ने मानव मात्र के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने के लिए पर्याप्त सामग्री की रचना की। उन्होंने जीवन की वास्तविकता की ओर अधिक ध्यान देकर आदर्शवाद को अपने लेखन का प्रमुख बिन्दु बनाए रखा।‎‎6. इतिहास के प्रति भी जागरुकता-यह कहा जाता है कि आधुनिक युग के प्रारम्भ से सूर्य भारत में इतिहास दृष्टि नहीं थी और भारतीय इतिहास के अध्ययन का मार्ग निदेशियों द्वारा प्रशस्त किया गया था, परन्तु यह विचार कदाचित उचित नहीं है। स्वीकार किया जा सकता है कि प्राचीन भारत में इतिहास को वर्तमान इतिहास के मे मात्र घटनाओं के चित्रण के रूप में नहीं किया गया, लेकिन तात्कालिन लोगों की दृष्टि से पाण्डुलिपियों के रूप में बहुत-सी सामग्री इधर-उधर‎‎प्राचीन‎‎तीन विद्वानों ने इतिहास के प्रति भी जागरुकता के कारण ऐतिहासिक महा की अत्यधिक सामग्री की रचना की जो लोककथाओं, पुरातन कथाओं और रूप में उपलब्ध है, परन्तु जिसे पूर्णतया इतिहास स्वीकार नहीं किया जा‎14 / यशराज आइडिया ऑफ भारत‎‎सकता। अतः यह स्पष्ट है कि भारत के लोगों ने इतिहास की रचना तो नहीं की किन्तु इतिहास के प्रति उनकी जागरुकता से इनकार नहीं किया जा सकता।‎‎इतिहास से तात्पर्य केवल कालक्रम के अनुसार व्यवस्थित लेखन पद्धति अथवा अतीत की जानकारी से नहीं है। इसका तात्पर्य दर्शन का ज्ञान प्राप्त करना और मानव के मस्तिष्क के विकास का अभियोजन करना भी है। इस दृष्टि से प्राचीन भारतीय इतिहास दूसरों से श्रेष्ठ है जो इतिहास की किताबी व्याख्या में विश्वास करते हैं।‎‎डॉ. आर. सी. मजूमदार की मान्यता है कि, शुद्ध ऐतिहासिक और साहित्यिक रूप में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है जिसका तात्पर्य प्रकृति, उत्तेजना, शैली और मूल्य से है। प्राचीन भारतीय साहित्य में हिन्दुओं के पुराणों, बौद्धों के जातकों और भक्तिगीतों (भजनों) में सामाजिक परिवर्तन से सम्बन्धित पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। इन ग्रंथों में समाज तथा सामाजिक स्थिति का समुचित ढंग से वर्णन किया गया है। इन्होंने अपने लेखन में सामाजिक बुराइयों की ओर तथा समय के प्रवाह की ओर भी संकेत किया है, जिसे बाल्टेयर ने अच्छे इतिहास का वास्तविक रूप माना है।‎‎पुराणों में सरकार, व्यापार, धर्म, शिक्षा, कांस्य प्लेटो और मुद्राओं का वर्णन है • जिन्हें शुद्ध ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। हिन्दू शासकों ने श्री दरबारी इतिहास लेखकों को संरक्षण प्रदान किया था किन्तु इनके वर्णन का दृष्टिकोण विषय-परक है।‎‎वेद, पुराण, रामायण तथा महाभारत महाकाव्यों में और बौद्ध व जैन साहित्य भी प्राचीन भारतीय इतिहास के संदर्भ प्रमुख साक्ष्य स्वीकार किए जाते हैं। 1. अश्वघोष का ‘बुद्ध चरित’, 2. कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’, 3. बाणभट्ट का ‘हर्ष चरित’ 4. विल्हण का ‘विक्रमांकदेव’ चरित, 5. कल्हण का ‘राजतरंगिणी’ आदि प्रमुख रचनाएँ रची गई। दक्षिण में तमिल साहित्य के रूप में उपलब्ध ‘संगम साहित्य’ भी तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक‎‎जानकारी का प्रमुख साक्ष्य है।‎‎लघुउत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions)‎‎प्रश्न उत्तर- 11.‎‎10. प्राचीन भारत की इतिहास दृष्टि पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। Write a short note on Anceint Indian View of History. नोट-इसके लिए प्रश्न क्र. 9 का उत्तर देखें।)‎‎प्राचीन भारत की इतिहास दृष्टि की प्रमुख विशेषताएँ बताइए। Describe the main‎‎characteristics of Ancient Indian View of Hutory. (नोट इसके लिए प्रश्न क्र‎‎. 9 का उत्तर देखें।)‎‎अति लघुउत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)‎‎उत्तर- इतिहास दृष्टि से क्या आशय है?‎‎‎उत्तर – नोट- इसके लिए प्रश्न क्र. 9 का उत्तर देखें।)‎‎बी. ए. प्रथम वर्ष / 15‎‎प्राचीन भारतीय प्रमुख रचनाओं का उल्लेख कीजिए। (नोट- इसके लिए प्रश्न क्र. 9 का उत्तर देखें ।)‎‎वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)‎‎प्राचीन भारत की इतिहास दृष्टि की विशेषता रही है-‎‎(अ) दर्शन की प्रधानता‎‎(स) आलोचनात्मक दृष्टिकोण का अभाव‎‎(द) उक्त सभी‎‎राजतरंगिणी की रचना निम्न में से किसने की थी-‎‎(अ) वेदव्यास‎‎(स) कल्हण‎‎(ब) आदर्शवाद‎‎(ब) बाणभट्ट‎‎(द) कौटिल्य‎‎प्राचीन भारतीय इतिहास के सन्दर्भ में शामिल किया जा सकता है-‎‎(अ) महाभारत‎‎(स) राजतरंगिणी‎‎उत्तर- 1. (द), 2. (स), 3. (द)‎‎(ब) अर्थशास्त्र‎‎(द) उक्त सभी ।‎‎भारतीय साहित्य का गौरव‎‎(The‎‎Glory of Indian Literature)‎‎4‎‎12. प्राचीन भारतीय साहित्य के गौरव पर एक निबन्ध लिखिए। Write an essay on the glory of Ancient Indian Literature.‎‎प्रश्न अथवा‎‎प्राचीन भारतीय साहित्य के गौरव का परिचय दीजिए। Give the introduce of Ancient Indian Literature.‎‎प्राचीन भारतीय साहित्य का गौरव‎‎भारतीय साहित्य को भाषा, भौगोलिक क्षेत्र, राजनीतिक एकता, सामाजिक, आध्यात्मिक विशिष्टता के साथ-साथ इस देश की जनता के आधार पर है।‎‎करते प्राचीन भारतीय साहित्य भारतीय संस्कृति एवं समाज के लिए एक गौरव रहा है। थ, जैसे वेद, स्मृतियाँ, पुराण, महाकाव्य यह सब अपने आप में कोई सभी भारतीय संस्कृति एवं भारतीय जीवन को दर्शाने का कार्य हमारे भारतीय साहित्य का गौरव हैं।‎‎भारतीय साहित्य का गौरव कहे जाने वाले वेद, पुराण, स्मृतियाँ आदि का परिचय यहाँ दिया जा रहा है‎‎.‎‎उत्तर-‎‎3.‎‎2.‎‎1.‎‎16 / यशराज आइडिया ऑफ भारत वेद‎‎वेद हिन्दू धर्म के सबसे प्राचीन और पवित्र ग्रंथ माने जाते हैं। इनमें मंत्री अनुष्ठान का संग्रह मिलता है। हिन्दू ऋषियों ने इस ज्ञान को इतना पवित्र माना कि ल समय तक उन्होंने इन्हें लिखित रूप में नहीं दिया। उन्होंने अपनी स्मृति में उन्हें संरक्षि किया और मौखिक शिक्षा के माध्यम से उन्हें योग्य शिष्य को सिखाया। जैसा कि उ श्रवण के माध्यम से सीखा गया था, न कि पढ़ने से, इस ज्ञान के सत्य को श्रुति के स में जाना जाने लगा, जिसका शाब्दिक अर्थ श्रवण है।‎‎समय के दौरान इन श्रुतिओं को इकट्ठा करने और संकलित करने की आवश्यक महसूस की गई। यह कार्य महान् ऋषि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने किया था। वेदों में संकलन के अपने विशाल कार्य को मान्यता देते हुए इस संत को नाम दिया गया वेदव्या और उनका जन्मदिन आज भी गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। वेदों को चार भागों में बाँटा गया है‎‎ऋग्वेद – इसमें ज्यादातर देवताओं इंद्र, अग्नि और सोम जैसे देवताओं का आहा करने के लिए मंत्रों और स्तोत्र के बारे में वर्णन किया गया है। गायत्री मंत्र का उल्लेख इसी वेद में मिलता है तथा विविध औषधियों का उल्लेख भी इस ऋग्वेद में मिलता है। यजुर्वेद-इसमें यज्ञों और हवनों का विधान मिलता है। अश्वमेघ यज्ञ जैसे यह का उल्लेख भी इसी ग्रंथ में मिलता है।‎‎सामवेद-साम का अर्थ रूपांतरण कह सकते हैं। इसमें संगीत यानी गायन के माध्यम को महत्व दिया गया है। इसमें ज्यादातर मंत्रों का उल्लेख ऋग्वेद से लिया गया है। इंद्रदेव और अग्निदेव के बारे में वर्णन मिलता है।‎‎अथर्ववेद-सांसरिक महत्वाकांक्षाओं के लिए जादू मंत्र, जैसे तंत्र-मंत्र के साथ चमत्कार, रहस्यमय क्रिया का इस ग्रंथ में उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि यह वेद उपरोक्त तीनों से काफी बाद में लिखा गया था।‎‎उपरोक्त भाग में से प्रत्येक में दो खंड होते हैं- संहिता, जिसका अर्थ है ‘भजन और ‘ब्राह्मण’, जो इन भजनों को बताता है, और निर्देश देता है कि उनका उपयोग कैसे और कब करना है। वेदों में चार अति महत्वपूर्ण वक्तव्य हैं। इन्हें महावैयाया या बड़ेबड़े वाक्य कहा जाता है। इन चार में से तीन हर आत्मा की दिव्यता की बात करते हैं। और चौथा परमात्मा के स्वरूप की बात करता है।‎‎उपवेद, उपांग‎‎प्रतिपदसूत्र, अनुपद, छन्दोभाषा (प्रातिशाख्या), धर्मशास्त्र, न्याय तथा वैशेषिकये 6 दर्शन उपांग ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं। आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेदये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद कात्यायन ने बतलाए हैं। 1.‎‎स्थापत्यवेद-स्थापत्यकला के विषय, जिसे वास्तुशास्त्र या वास्तुकला भी कहा जाता है, इसके अन्तर्गत आता है। 2. धनुर्वेद‎‎-युद्ध कला का‎‎विवरण इसमें आता है। इसके ग्रन्थ विलुप्तप्रायः‎‎हैं।‎बी. ए. प्रथम वर्ष / 17‎‎3. गन्धर्वेद – गायन कला का वर्णन है।‎‎4. आयुर्वेद – वैदिक ज्ञान पर आधारित स्वास्थ्य विज्ञान का वर्णन है।‎‎(वेद के अंग )‎‎वेदांग वेदों के सर्वांगीण अनुशीलन के लिए शिक्षा (वेदांग), निरुक्त, व्याकरण, छन्द और कल्प (वेदांग), ज्योतिष के ग्रन्थ हैं, जिन्हें 6 अंग कहते हैं। अंग के विषय इस प्रकार हैं-‎‎1. शिक्षा- ध्वनियों का उच्चारण। 2. निरुक्त-शब्दों का मूल भाव। इनसे वस्तुओं का ऐसा नाम किसलिए आया इसका विवरण है। शब्द-मूल, शब्दावली और शब्द निरुक्त के विषय हैं। 3. व्याकरण- सन्धि, समास, उपमा, विभक्ति आदि का विवरण। वाक्य निर्माण को समझने के लिए आवश्यक ।‎‎4. छन्द- गायन या मंत्रोच्चारण के लिए आघात और लय के लिए निर्देश । 5. कल्प-यज्ञ के लिए विधिसूत्र । इसके अन्तर्गत श्रीतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र और कार्य सम्पन्न करना और समर्पण करने में इनका महत्व है।‎‎शुल्बसूत्र । वेदोक्त 6. ज्योतिष – समय का ज्ञान और उपयोगिता। आकाशीय पिण्डों (सूर्य, पृथ्वी, नक्षत्रों) की गति और स्थिति से। इसमें वेदांग ज्योतिष नामक ग्रन्थ प्रत्येक वेद के अलगअलग थे। अब लगधमुनि प्रोक्त चारों वेदों के वेदांग ज्योतिषों में दो ग्रन्थ ही पाए जाते है- एक आर्च पाठ और दूसरा याजुस् पाठ। इस ग्रन्थ में सोमाकार नाम विद्वान के प्राचीन भाव्य मिलता है, साथ ही कौण्डिन्नायायन संस्कृत व्याख्या भी मिलती है।‎‎पुराण हिन्दू धर्म के वेदों को गहराई से समझना काफी कठिन है। वे ज्यादातर लोगों को समझने के दायरे से बाहर हैं। भारत के ऋषियों ने उन्हें रोचक और आसानी से समझ में आने वाले तरीके से प्रस्तुत करने के लिए पुराणों नामक एक विशेष प्रकार का साहित्य तैयार किया। पुराणों में लिखित ज्ञान को कहानियों और दृष्टान्तों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है, जिससे वाचक आसानी से समझ सके पुराणों की संख्या 18 हैं। वे पुराण है-‎‎निम्नानुसार मत्स्य पुराण, कुरम पुराण, वराह पुराण, गरुड़ पुराण, ब्रह्मा पुराण, विष्णु पुराण, पद्म पुराण, शिव पुराण, भागवत् पुराण, स्कन्द पुराण, लिंग पुराण, अग्नि पुराण, वायु पुराण, मार्कण्डेय पुराण, नारद पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, भविष्य पुराण । पुराणों में वर्णित भगवान विष्णु के दस अवतार मानव जाति को सिखाते हैं कि भगवान ने विभिन्न अवतारों में पृथ्वी पर प्रकट होकर समय-समय पर अन्याय और बुरी ताकत का नाश करके धर्म को फिर से स्थापित किया है।‎‎उपनिषद उपनिषदों को वेदान्त भी कहा जाता है और वे दार्शनिक, आध्यात्मिक और वैदिक दर्शन का सार है। वर्तमान में उपलब्ध 108 उपनिषदों में से निम्नलिखित सबसे लोकप्रिय है-‎‎‎18 / यशराज आइडिया ऑफ भारत‎‎(1) ईश उपनिषद्, (2) ऐतरेय उपनिषद, (3) कठ उपनिषद्, (4) केन उपनिष (5) छान्दोग्य उपनिषद, (6) प्रश्न उपनिषद, (7) तैत्तिरीय उपनिषद, (8) बृहदारण्य उपनिषद, (9) मांडूक्य उपनिषद, (10) मुण्डक उपनिषद । विद्वानों ने निम्न तीन को प्रमाण कोटि में रखा है-‎‎(1) श्वेताश्वतर, (2) कौषीतकि, (3) मैत्रायणी।‎‎शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, निम्बार्काचार्य, माधवाचार्य और बल्लभाचार्य ने हमे उपनिषदों को पवित्र ज्ञान ग्रंथ के रूप में माना है और उनकी व्याख्या की है ताकि उ अपने सिद्धान्तों के अनुरूप बनाया जा सके।‎‎स्मृतियाँ‎‎वैदिक शास्त्र ही प्राचीनतम सत्य हैं। वेदों को छोड़कर सभी शास्त्र स्मृति श्रे में आते हैं और पुराणों और महाकाव्यों को इसमें शामिल करते हैं। स्मृति शब्द व तकनीकी अर्थ है- हिन्दुओं के लिए नियम पुस्तिका या आचार संहिता या नियमावली इन प्राचीन विधि-पुस्तकों में मनु की विधि-पुस्तक (मनुस्मृति) का भी उल्लेख किय गया है।‎‎प्रमुख स्मृतियाँ निम्नानुसार हैं-‎‎मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, अत्रि स्मृति, विष्णु स्मृति, हारित स्मृति, औशनस स्मृति अंगिरा स्मृति, यम स्मृति, कात्यायन स्मृति, बृहस्पति स्मृति, पाराशर स्मृति, व्यास स्मृति स्मृति, गौतम स्मृति, वशिष्ठ स्मृति, आपस्तम्ब स्मृति, संवर्त स्मृति, शंख स्मृति, लिखि स्मृति देवल स्मृति, शतातप स्मृति आदि।‎‎महाकाव्य‎‎वैदिक साहित्य के पश्चात् जिन साहित्यिक ग्रन्थों या रचनाओं का अत्यन्त महत् माना गया है, ये है महाकाव्य दो प्रमुख महाकाव्य हैं- रामायण और महाभारत। रामाय आदि कवि वाल्मीकि द्वारा संस्कृत भाषा में की गई है। जिसमें अयोध्या के राज के पुत्र श्रीराम की कथा का वर्णन है। महाभारत की रचना वेदव्यासजी द्वारा क कैरव एवं पांडवों का कथानक है, जिनके बीच विश्व प्रसिद्ध ‘महाभारत का युद्ध हुआ था। यह दोनों महाकाव्य दो अलग-अलग युगों के घटनाक्रम को दर्शा त्रेतायुग की कथा है, तो ‘महाभारत’ द्वापर युग की।‎‎धर्म के साहित्य के पश्चात् बौद्ध धर्म का साहित्य आता है। बौद्ध धार्मिक विशेष उल्लेखनीय है-‎‎ग्रंथ-विनयपिटक, सुतपिटक और अधिधम्मपिटक। विनयपिटक क्षुणियों के दैनिक जीवन सम्बन्धी विधि-नियम और निषेध है उपदेश, सिद्धान्त, आख्यान, उदाहरण और कथानक है। 1 विवेचन उच्चतर व्याख्या और दर्शन के रूप में हैं। । की संख्या 549 है। इनमें कहानियों के रूप में बौद्ध ध तिकता के नियम समझाए गए हैं। बुद्ध के पूर्व जन्म की घटनाओं‎बी. ए. प्रथम वर्ष / 19‎‎का विवरण भी जातकों में हैं। इन जातक ग्रन्थों से बौद्ध युग की सामाजिक, राजनीतिक दशा पर प्रकाश पड़ता है।‎‎और आर्थिक 3. पालि बौद्ध ग्रन्थ- पालि भाषा में लिखे हुए बौद्ध धर्म के ग्रन्थों में भी इतिहास की सामग्री है। इनमें मिलिन्द पन्हो, दीपवंश और महावंश मुख्य हैं। मिलिन्द पन्हों में यूनानी नरेश मोनेण्डर (मिलिन्द) और बौद्ध भिक्षु नागसेन का धार्मिक विषयों पर वार्तालाप है। यह ईसा के पहली शताब्दी के जनजीवन पर प्रकाश डालता है। दीपवंश और महावंश दोनों ही काव्य है और लंका के बौद्ध ग्रंथ हैं। महावंश में चन्द्रगुप्त मौर्य का वर्णन है। भी हैं, जैसे महावस्तु,‎‎4. संस्कृत बौद्ध ग्रन्थ-संस्कृत में लिखे हुए कई बौद्ध-ग्रंथ ललित विस्तार, बुद्ध चरित्र, सौदानन्द काव्य, दिव्यावदान आदि। महावस्तु और ललित विस्तार में बुद्ध का जीवन वृत्त है। यह तत्कालीन धार्मिक व सामाजिक जीवन से अवगत कराता है। बुद्ध चरित्र अश्वघोष का महाकाव्य है। दिव्यावदान में अशोक के उत्तराधिकारियों से लेकर पुष्यमित्र शुंग तक का वर्णन है।‎‎जैन साहित्य जैन धर्म के धार्मिक ग्रन्थों में भी प्रचुर ऐतिहासिक सामग्री बिखरी पड़ी है। इन जैन धार्मिक ग्रन्थों की रचना और संकलन ईसा की पहली सदी से छठी सदी तक भिन्न-भिन्न हुआ। इन ग्रन्थों में निम्नलिखित मुख्य हैं-‎‎कालों में 1. परिशिष्ट वर्णन-यह सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रन्थ है, जिसकी रचना हेमचन्द्र सूरि ने की।‎‎आचार्य 2. भद्रबाहु चरित्र – भद्रबाहु प्रसिद्ध जैन विद्वान साधु थे। इस ग्रन्थ में चन्द्रगुप्त मौर्य का विवरण है।‎‎युग 3. जैन आगम ग्रन्थ-इनमें प्रमुख स्थान बारह अंगों का है। इन अंगों में महावीर के सिद्धान्त, जैन भिक्षुओं के आचार, नियमों का उल्लेख, विविध प्रवचन, महावीर के जीवन और उनके कार्य, प्रख्यात भिक्षु के जीवन और निर्वाण का विवरण, उपासक जीवन निषेदों और आचार-विचारों का संग्रह है।‎‎के 4. व्याख्या ग्रन्थ और टीका ग्रन्थ-विविध जैन मुनियों और विद्वानों ने जैन धर्मग्रन्थों पर संस्कृत में व्याख्या-ग्रन्थ और टीका ग्रन्थ भी लिखे हैं। इनमें भी तत्कालीन जीवन की ओर संकेत मिलते हैं।‎‎विधि-‎‎अन्य साहित्य धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त अनेक ऐसे ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं, जो किसी धर्म से सीधा सम्बन्ध नहीं रखते अथवा किसी धर्म विशेष से प्रभावित नहीं है। धर्मनिरपेक्ष साहित्य को विभाजित किया जा सकता है-‎‎कल्पना प्रधान लोक-साहित्य एवं जीवन-चरित्र-विदेशियों द्वारा भारत के विषय में लिखे गए वर्णन के अतिरिक्त सम्पूर्ण धर्मनिरपेक्ष साहित्य इसी शीर्षक के कुछ प्रमुख ग्रन्थ, जो ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्व रखते हैं।‎‎अर्थशास्त्र- इस श्री रचना चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री चाणक्य ने ई.पू.‎20 / यशराज आइडिया ऑफ भारत‎‎चौथी शताब्दी में की थी। तत्कालीन शासन व्यवस्था पर इस ग्रन्थ से व्यापक प्रकाश पड़ता है। राजनीति, कूटनीति एवं शासन प्रबन्ध पर यह एक उत्कृष्ट कृति मानी जाती है। मौर्यकाल के विषय में जानकारी देने वाली यह सबसे प्रमाणिक पुस्तक है।‎‎मुद्राराक्षस-इस नाटक की रचना विशाखदत्त ने की थी। इसमें नन्द राजा के पतन तथा चाणक्य द्वारा चन्द्रगुप्त को राजा बनाए जाने का उल्लेख है। इस नाटक की रचना सातवीं शताब्दी में हुई थी।‎‎कालिदास की रचनाएँ-कालिदास द्वारा रचित ग्रन्थों से तत्कालीन संस्कृति पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। ‘मालविकाग्निमित्र’ में पुष्यमित्र व यवनों के मध्य हुए युद्ध का भी उल्लेख है।‎‎हर्षचरित – हर्षचरित की रचना सातवीं सदी में बाणभट्ट ने की थी। इस ग्रन्थ से हर्षकालीन प्रत्येक प्रमुख घटना की जानकारी प्राप्त होती है। इस ग्रन्थ का विशेष ऐतिहासिक महत्व है।‎‎गार्गी संहिता- इसमें भारत पर यवनों के आक्रमण का उल्लेख है। राजतरंगिणी – राजतरंगिणी का रचनाकार कल्हण नामक विद्वान थे। इस ग्रन्थ से कश्मीर के इतिहास के विषय में विशेष रूप से जानकारी प्राप्त होती है। इस ग्रन्थ की रचना बारहवी शताब्दी में हुई थी।‎‎प्रश्न 13. ‘वेद साहित्य’ पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिए। Write a shortly note on Ved Literature.‎‎वेद क्या है ? समझाइए । What are Veds ? Explain.‎‎अथवा‎‎उत्ता-‎‎वेद‎‎’वेद’ प्राचीन भारत के पवित्र साहित्य हैं, जो हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी है। वेद, विश्व के सबसे प्राचीन साहित्य भी हैं। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन वर्णाश्रम धर्म के, मूल और सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं। वेद शब्द संस्कृत भाषा के बिंदु ज्ञाने धातु से बना है। इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ ‘ज्ञान’ है। इसी धातु से ‘विदित’ (जाना हुआ), ‘विद्या’ (ज्ञान), ‘विद्वान’ (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं। वेदों के प्रकार या चतुर्वेद‎‎ॠग्वेद को चारों वेदों में सबसे प्राचीन माना जाता है। इसको दो प्रकार में बाँटा गया है। प्रथम प्रकार में इसे 10 मण्डलों में विभाजित किया गया है। मण्डलों को सूक्तों में कुछ ऋचाएँ होती है। कुल ऋचाएँ 10627 हैं। ऋग्वेद में 64 अध्याय हैं। को मिलाकर एक अष्टक बनाया गया है। ऐसे कुल आठ अष्टक अध्याय को वर्गों में विभाजित किया गया है। वर्गों की संख्या भिन्न-भिन्न -भिन्न ही है। कुल वर्ग संख्या 2024 है। प्रत्येक वर्ग में कुछ मंत्र होते.‎‎है।‎‎

  • B.A. 1st Year Idea of Bharat Notes UNIT-SECOND

    भाषा और लिपि का विकास : ब्राह्मी, खरोष

    पालि, प्राकृत, संस्कृत, तिगलिरी

    इकाई-द्वितीय

    UNIT-SECON

    भारतीय शौर्य प्रणाली

    5

    भाषा और लिपि का विकास

    भारतीय कला और संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ

    भारतीय शिक्षा प्रणाली

    भाषा और लिपि का विकास : ब्राह्मी, खरोष

    पालि, प्राकृत, संस्कृत, तिगलिरी आ

    (Evolution of Language and Script: Brahn Kharoshthi, Pali, Sanskrit, Tigliri Et

    प्रश्न 17. लिपि से क्या आशय है ? भारत में लिपि के विकास का वर्णन की What is the meaning of script? Discuss the evolution of Sci अथवा

    भारत की प्रमुख लिपियों का वर्णन कीजिए।

    Discuss the main Scripts of India.

    उत्तर-

    लिपि से आशय

    (Meaning of Script)

    ‘लिपि’ उन संकेतों अथवा वर्ण (शब्द) को कहा जाता है, जिनके माध्यम से ले कला सम्भव हुई।

    लिपि का अर्थ होता है, किसी भाषा की लिखावट या लिखने का ढंग 1 को लिखने के लिए जिन चित्रों या संकेतों का प्रयोग किया जाता है, वही कहलाती है।

    भारत में लिपि का विकास

    भारत में लिपि का इतिहास काफी पुराना है। भाषा के साथ ही लिपि के क्षेत्र भारत ‘विश्वगुरु’ रहा है। भारत में परम्परागत धारणा के अनुसार लिपि के सृजनकर्ता स ब्रह्माजी हैं, जिन्होंने ब्राह्मणी लिपि बनाईं। जबकि भाषाविद् भोलाशंकर तिवारी के में, “मनुष्य ने अपनी आवश्यकतानुसार लिपि को जन्म दिया है।”

    भोलाशंकर तिवारी ने विभिन्न उपलब्ध लिपियों का अध्ययन करके लिपि विक का ऐतिहासिक क्रम निम्नानुसार प्रस्तुत किया है- (1) चित्र लिपि

    (2) सूत्र लिपि

    (3) प्रतीकात्मक लिपि

    [24]

    बी. ए. प्रथम वर्ष / 25

    भावमूलक लिपि

    (4) (5) भाव ध्वनिमूलक लिपि (6) ध्वनिमूलक लिपि । विद्वानों के मतानुसार भारत में लेखन कला का विकास ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में हुआ। ध्वनिमूलक लिपि ‘लिपि विकास’ की चरम परिणिति मानी जा सकती है। इस लिपि के ‘अक्षरात्मक लिपि’ तथा ‘वर्णनात्मक लिपि’ रूप पाए जाते हैं। नागरी लिपि तथा रोमन लिपि क्रमशः इनके उदाहरण हैं।

    भारत की प्रमुख लिपियाँ

    भारत की प्रमुख लिपियाँ तथा उनका परिचय निम्नानुसार हैसिन्धु लिपि

    भारत की अति प्राचीन लिपि तक न पढ़े जाने के कारण यह लिपि विद्वानों के लिए रहस्य का विषय बनी हुई है। सिन्धु लिपि से सम्बन्धित अभी तक कोई ऐसा लेख प्राप्त नहीं हुआ है, जिसमें बीस से अधिक संकेत हो। सेलखड़ी, मिट्टी तथा हाथी दाँत से निर्मित मुहरों पर इन लिपि संकेतों के साथ उत्कीर्ण पशु-पक्षियों की आकृतियों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि सिन्धु लिपि दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थी और दूसरी पंक्ति बाईं ओर से दाईं ओर लिखी जाती थी। कुछ विद्वानों ने सिन्धु लिपि को चित्र लिपि माना है। इस लिपि में लगभग 500 संकेतों का प्रयोग होता था, किन्तु एक ही संकेत के विविध रूपों को छोड़ दिया जाए तो सिन्धु लिपि के संकेतों की संख्या 250 पर लाई जा सकती है। यह बात भी स्पष्ट है कि इतने संकेतों वाली लिपि वर्णनात्मक नहीं हो सकती। यह भी स्पष्ट है कि चित्र लिपि या भावचित्रात्मक चित्र लिपि के लिए इतने संकेत कम हैं।

    अनेक बातों में यह लिपि सुमेर, मिस्र, क्रीट और चीन की लिपियों से मिलतीजुलती हैं। दे हेवेसी ने इस लिपि को ईस्टर द्वीप की लिपि से जोड़ने का असफल प्रयत्न किया। अन्वेषणकर्ता सुधांशु कुमार राय के मतानुसार सिंधु लिपि में आद्य संस्कृत के दर्शन होते हैं तथा यह लिपि आजकल की देवनागरी लिपि जैसी है। धोलावीरा में इस लिपि के काफी बड़े-बड़े अक्षर मिले हैं। यह लगभग चार हजार वर्ष पुरानी लिपि है। ब्राह्मी लिपि

    प्राचीन भारतीय लिपियों में ब्राह्मी लिपि का स्थान सर्वश्रेष्ठ रहा है। ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति को लेकर विद्वान एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार इसका सम्बन्ध किसी विदेशी लिपि से है, जबकि कुछ विद्वानों के अनुसार इसका उद्भव और विकास भारत में ही हुआ। ब्राह्मी लिपि की वर्णमाला का ज्ञान जेम्स प्रिंसेप (1799-1840) ने कराया। अशोक ने अपने लेखों की लिपि को ‘धम्मलिपि’ का नाम दिया। इसी लिपि को आज ब्राह्मी लिपि के नाम से जाना जाता है। भारतीय परम्परा के अनुसार, ‘ब्रह्मा’ को इस लिपि का जन्मदाता माना जाता है। चीनी बौद्ध विश्वकोष ‘फा-वान-शु-लिन’ के अनुसार इस लिपि के जन्मदाता ‘ब्रह्मा’ (Fan) नामक आचार्य हैं। इसका चीन बौद्ध विश्वकोष में उल्लेख है कि लिखने की कला का शोध तीन दैवी शक्ति वाले आचार्यों ने किया है। उनमें सबसे प्रसिद्ध ब्रह्मा हैं, जिनकी लिपि बाईं ओर से दाहिनी ओर पढ़ी जाती है।

    26 / यशराज आइडिया ऑफ भारत

    1929 ई. में अनुधोष को एर्रागुड़ी में अशोक का एक लघु शिलालेख मिला है, जिसे 1933 में प्रकाशित किया गया। इस लेख की कुल 23 पंक्तियों में से 8 पंक्तियाँ 2, 4, 6, 9, 11, 13, 14 और 23वीं पंक्तियाँ दाई से बाईं ओर को लिखी गई है। पुरालिपियों में यह एक अद्भुत उदाहरण है। दक्षिण भारत के भट्टिप्रोलू लेखों में भी ब्राह्मी लिपि के कुछ अक्षर उलटे लिखे हुए मिलते हैं। लेकिन फिर भी कुछ विदेशी पुरालिपिविद ब्राह्मी लिपि को विदेशी लिपि के आधार पर बनाई जाने का दावा करते है, जो निराधार प्रतीत होता है। अधिक सम्भव तो यही जान पड़ता है कि सिन्धु लिपि से ही ब्राह्मी लिपि का विकास हुआ है। इस लिपि के उपलब्ध लेखों में लगभग एक हजार वर्षों का अन्तर है। इस लिपि में मूलाक्षरों के साथ स्वरों की मात्राओं का रूप देखने को मिलता है। साथ ही संयुक्त अक्षर भी देखने को मिलते हैं।

    तिगलिरी लिपि

    तिगलिरी (तिगरी लिपि, तुलु लिपि) एक दक्षिणी ब्राह्मी लिपि है, जिसका उपयोग तुलू, कन्नड़ और संस्कृत भाषाओं को लिखने के लिए किया जाता था। इसका प्रयोग मुख्यतः वैदिक प्रन्थों को संस्कृत में लिखने के लिए किया जाता था। यह ग्रन्थ लिपि से विकसित हुआ है। इसे कन्नड़ भाषी क्षेत्रों (मलनाड क्षेत्र) में तिगलारी लिपि कहा जाता है और तुलु बोलने वाले इसे तुलु लिपि कहते हैं। यह अपनी बहन लिपि मलयालम के साथ उच्च समानता और सम्बन्ध रखती है, जो ग्रन्थ लिपि से भी विकसित हुई है।

    यहाँ कुलशेखर के श्री वीरनारायण मन्दिर में एक पत्थर के शिलालेख में पाए गए इस लिपि के उपयोग का सबसे पुराना रिकॉर्ड पूरी तिगलारी /तुलु लिपि और तुलु भाषा में है और यह 1159 ईस्वी सन् का है। 15वीं शताब्दी के तुलु के विभिन्न शिलालेख तिगलारी लिपि में है। 17वीं शताब्दी के श्री भगवतो और कावेरी नामक दो तुलु महाकाव्य भी एक ही लिपि में लिखे गए थे। इसका उपयोग तुलु-भाषी ब्राह्मणों जैसे शिववल्ली ब्राह्मणों और कन्नड़ भाषी हव्यका ब्राह्मणों और कोटा ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मंत्रों और अन्य संस्कृति धार्मिक ग्रन्थों को लिखने के लिए भी किया जाता था। हालाँकि, स्क्रिप्ट को पुनर्जीवित करने के लिए तुलु वक्ताओं के बीच एक नए सिरे से रुचि रही है, क्योंकि यह पहले तुलु-भाषी क्षेत्र में उपयोग किया जाता था। कर्नाटक सरकार की एक सांस्कृतिक शाखा, कर्नाटक तुलु साहित्य अकादमी ने मैंगलोर और उडुपी जिलों के स्कूलों में तुङ भाषा (कन्नड़ लिपि में लिखी गई) और तिगलिरी लिपि की शुरुआत की है। अकादमी इस स्क्रिप्ट को सीखने के लिए निर्देश पुस्तिका प्रदान करती है और इसे सिखाने के लिए कार्यशालाएँ आयोजित करती है।

    खरोष्ठी लिपि

    बौद्ध ग्रन्थ ललित विस्तार में जिन 64 लिपियों का उल्लेख मिलता है उनमें पहले नम्बर पर ब्राह्मी तथा दूसरे पर खरोष्ठी का उल्लेख है। भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश पर ईरानियों का अधिकार हो जाने से वहाँ ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में आरमेई लिपि के आधार पर एक नवीन लिपि खरोष्ठी का निर्माण हुआ। खरोष्ठी का शाब्दिक अर्थ है ‘गधे के ओंठ ‘वाली’। इस लिपि के लेखों की भाषा प्राकृत है। वर्णमाला सरल है। यह लिपि दाईं ओर

    बंगला और असमि विकास एकसाथ हुआ लिपि की झलक देखने क राजाओं का शासन प्रारम्भ

    समझाइएExplain

    प्रश्न 18. भाषा से आप

    नाम दिया। शिवाजी और प बंगला लिपि

    What do Indian La

    के कुछ जिलों तथा मद्रास अभिलेखों में देखने की अभिलेख इलेबीद- शिलाल का एक तेलुगु कवि कन्नड़ और तेलुगु लिपियों मोडी लिपि

    उपर्युक्त वर्णित का कार्य किया है. वहीं। है। कई भारतीय लिपियों

    उत्तर-

    हुई है।

    कुछ विद्वानों के ि निर्माण किया था। इस लिए में तोड़-मरोड़ आ जाती थी

    28 / यशराज आइडिया ऑफ भारत

    लिपि अपनी स्वतंत्र विशेष के बाद बंगला लिपि के अभिलेख मिलते है। निष्कर्ष

    लिए इस लिपि को शारदा लिपि के नाम से जाना जाता है। कुछ विद्वानों का मत है लिपि का जन्म सिद्धमात्रिका लिपि से हुआ है। ईसा को दसवीं शताब्दी से कश्मीर साथ ही उत्तरी पूर्वी पंजाब में इस लिपि का व्यवहार देखने को मिलता है। इसके प्राचीनतम लेख व शताब्दी से मिलते हैं। ‘बूतर’ ने जालंधर के राजा जयचन्द्र की कीरग्राम के बैजनाथ मन्दिर में लगी प्रशस्तियों का समय 804 ई. मान लिया था, किन्तु ‘कौलहान ने अपनी गणितीय गणनाओं से सिद्ध किया है कि ये प्रशस्तियाँ 12वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की हैं। ‘फोगेल’ ने चम्बा राज्य से शारदा लिपि के बहुत से अभिलेख प्राप्त हुए हैं। गुरुमुखी लिपि लिपि में प्राप्त होता है।

    यह सिखों की लिपि है। लिपि का धार्मिक साहित्य इस लगभग सम्पूर्ण पंजाब प्रान्त में इस लिपि का प्रभाव देखने को मिलता है। इसमें पंजाबी भाषा की अनेक पुस्तकें व पत्रिकाएँ प्रकाशित की गई है, जो वर्तमान में उपलब्ध है। कलिंग लिपि

    भाषा वह साधन

    कलिंग प्रदेश में 9वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी के मध्य जिस लिपि का प्रयोग हुआ, पुरातत्वविदों ने उसे कलिंग लिपि का नाम दिया। कलिंग राज्य के दानपात्रों में गंगवंशी राजाओं ने इस लिपि का प्रयोग किया था। इस लिपि में तीन शैलियाँ देखने को मिलती है। आरम्भिक लेखों में मध्यदेशीय तथा दक्षिणी प्रभाव देखने को मिलता है। अक्षरों के सिरे वर्गाकार है। आरम्भिक अक्षर समकोणीय दिखाई देते हैं, किन्तु बाद में कन्नड़ तेलुगू लिपि के प्रभाव के अन्तर्गत अक्षर गोलाकार होते दिखाई देते हैं।

    मन के भावों या विचार अपने भावो को लिखित

    को समझ सके उसे सार्थक शब्दों

    इस लिपि का जन्म नागरी लिपि से हुआ है। गुजरात प्रान्त में व्यवहार में लाई जाने खाली इस लिपि के सिरों पर रेखाएँ दिखाई देती थी, किन्तु बाद में इस लिपि के सिरों पर रेखाएँ नहीं दिखती है।

    तमिलनाडु के आरकट, सलेम, त्रिचनापल्ली, मदुरै, तिन्नेवेल्लि तथा पुराने त्रावनकोर राज्य में सातवीं शताब्दी से इस लिपि का व्यवहार होता रहा है। दक्षिण के पाण्ड्य, पल्लव तथा चोल राजाओं ने अपने अभिलेखों से इस लिपि का प्रयोग किया है।

    • महाबलीपुरम् के धर्मराजरथ पर कुछ विरुद्ध उत्कीर्ण हैं। इस लिपि को ‘पल्लव ग्रन्थ लिपि’ का नाम दिया गया है। राजसिंह का कैलाशनाथ मन्दिर का शिलालेख सातवी शताब्दी की पल्लव ग्रन्थ लिपि का अद्वितीय उदाहरण है।

    अनेक विद्वानों का मत है कि इस लिपि का जन्म ग्रन्थ लिपि से हुआ है। इस लिपि में ग्रन्थ लिपि का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।

    दोनों लिपियों में काफी समानता दिखाई देती है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों लिपियों का उद्गम एकसाथ हुआ है। इन लिपियों का प्रयोग दक्षिणी महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश

    गुजराती लिपि

    ग्रन्थ लिपि

    मलयालम लिपि

    तेलुगु-कन्नड़ लिपि

    बनाते करने

    लैटिन यह स सांस्कृ

    भारत की मूल एवं प्राचीन भाषाओं को आर्य भाषाएँ कहा जाता है और भाषाओं की दृष्टि से भारत बहुत ज्यादा समृद्ध देश रहा है। भारत की प्रमुख भाषाएँ इस प्रकार हैं-

    हिन्द-आर्य भाषाएँ पालि, प्राकृत, मारवाड़ी/मेवाड़ी, अपभ्रंश, हिन्दू, उद् पंजाबी, राजस्थानी, सिन्धी, कश्मीरी, मैथिली, भोजपुरी, नेपाली, मराठी, डोगरी, कुरमाली, नागपुरी, कोंकणी, गुजराती, बंगाली, ओड़िआ, असमिया।

    30 / यशराज आइडिया ऑफ भारत

    दो अ

    तिब्बती-बर्मी भाषाएँ – नेपाली भाषा, मणिपुरी, खासी, मिजो, आओ, म्हार, नागा।

    द्रविड़ भाषाएँ-तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, तुलु, गोंडी, कुडुख । ऑस्ट्रो-एशियाई भाषाएँ-संथाली, हो, मुंडारी, खासी ।

    पाणिनि ने बड़ी

    का रह

    हैं, जब

    संस्कृत का अर्थ है- संस्कार की हुई भाषा संस्कृत न केवल भारत की अपितु । विश्व की एक प्रमुख शास्त्रीय भाषा है। यह विश्व की सबसे प्राचीनतम भाषाओं में से है।

    भारत में भाषाएँ

    का अ क्योंकि अर्थ

    संस्कृि

    कुटुम्ब

    पालि

    होती पुश्त र पता न मस्तिष

    संस्कृत को देवभाषा या देववाणी भी कहा जाता है। यह एक हिन्द-आर्य भाषा है, जो हिन्द-यूरोपीय भाषा परिवार की एक शाखा है। आधुनिक भारतीय भाषाएँ जैसेहिन्दी, बांग्ला, मराठी, सिंधी, पंजाबी, नेपाली आदि इसी उत्पन्न हुई हैं। इन सभी भाषाओं में यूरोपीय बंजारों की रोमानी भाषा भी शामिल है। संस्कृत में वैदिक धर्म से सम्बन्धित लगभग सभी धर्मग्रन्थ लिखे गए हैं। बौद्ध धर्म (विशेषकर महायान) तथा जैन मत के भी कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ संस्कृत में लिखे गए हैं। आज भी हिन्दू धर्म के अधिकतर यज्ञ और पूजा संस्कृत में ही होती हैं। संस्कृत आमतौर पर कई पुरानी इंडो-आर्यन किस्मों को जोड़ती है। सबसे प्राचीन ग्रंथ ‘वेद’ स्मृतियाँ, बुराण आदि मूल रूप से संस्कृत भाषा में मिलते हैं। वैदिक संस्कृत ने उममहाद्वीप की प्राचीन भाषाओं के साथ बातचीत की, नए पौधों और जानवरों के नामों को अवशोषित किया, इसके अलावा, प्राचीन द्रविड़ भाषाओं ने संस्कृत के स्वर विज्ञान और वाक्य रचना को प्रभावित किया।

    संस्कृत का इतिहास बहुत पुराना है। वर्तमान समय में प्राप्त सबसे प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ ऋग्वेद है जो कम से कम ढाई हजार वर्ष ईसा पूर्व की रचना है। संस्कृत भाषा की विशेषताएँ (1)

    संस्कृत, विश्व की सबसे पुरानी पुस्तक (वेद) की भाषा है। इसलिए इसे विश्व की प्रथम भाषा मानने में कहीं किसी संशय की सम्भावना नहीं है। (2) इसकी सुस्पष्ट

    भी स्वयंसिद्ध है। व्याकरण और वर्णमाला की वैज्ञानिकता के कारण सर्वश्रेष्ठता (3) सर्वाधिक महत्वपूर्ण

    (5) संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं, बल्कि संस्कारित भाषा भी है, अतः बोलने वालों के नाम पर नहीं किया गया है। इसका नाम संस्कृत है। केवल संस्कृत ही एकमात्र भाषा है, जिसका नामकरण उसके

    संस्कृत भाषा

    (4) इसे देवभाषा माना जाता है। साहित्य की धनी होने से इसकी महत्ता भी निर्विवाद है।

    में द्विव

    आइस लिपि को शारदा लिपि के नाम से जाना जाता है। कुछ विद्वानों का मत लिपि का जन्म सिद्धमात्रिका लिपि से हुआ है। ईसा की दसवीं शताब्दी से कश्मीर के साथ ही उत्तरी पूर्वी पंजाब में इस लिपि का व्यवहार देखने को मिलता है। इसके प्राचीनतम लेख वीं शताब्दी से मिलते हैं। ‘बुलर’ ने जालंधर के राजा जयचन्द्र की कौरयाम के बैजनाथ मन्दिर में लगी प्रशस्तियों का समय 804 ई. मान लिया था, किन्तु ‘कीलहानी’ ने अपनी गणितीय गणनाओं से सिद्ध किया है कि ये प्रशस्तियाँ 12वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध गुरुमुखी लिपि की है। ‘फोगेल’ ने चम्बा राज्य से शारदा लिपि के बहुत से अभिलेख प्राप्त हुए है। यह सिखों की लिपि है। लिपि का

    धार्मिक साहित्य इस लिपि में प्राप्त होता है। लगभग सम्पूर्ण पंजाब प्रान्त में इस लिपि का प्रभाव देखने को मिलता है। इसमें पंजाबी कलिंग लिपि भाषा की अनेक पुस्तकें व पत्रिकाएँ प्रकाशित की गई है, जो वर्तमान में उपलब्ध हैं। कलिंग प्रदेश में 9वीं शताब्दी से

    12वीं शताब्दी के मध्य जिस लिपि का प्रयोग हुआ, पुरातत्वविदों ने उसे कलिंग लिपि का नाम दिया। कलिंग राज्य के दानपात्रों में गंगवंशी राजाओं ने इस लिपि का प्रयोग किया था। इस लिपि में तीन शैलियाँ देखने को मिलती हैं। आरम्भिक लेखों में मध्यदेशीय तथा दक्षिणी प्रभाव देखने को मिलता है। अक्षरों के सिरे वर्गाकार है। आरम्भिक अक्षर समकोणीय दिखाई देते है, किन्तु बाद में कन्नड़ तेलुगू लिपि के प्रभाव के अन्तर्गत अक्षर गोलाकार होते दिखाई देते हैं। गुजराती लिपि

    इस लिपि का जन्म नागरी लिपि से हुआ है। गुजरात प्रान्त में व्यवहार में लाई जाने वाली इस लिपि के सिरों पर रेखाएँ दिखाई देती थीं, किन्तु बाद में इस लिपि के सिरों पर रेखाएँ नहीं दिखती हैं।

    तमिलनाडु के आरकट, सलेम, त्रिचनापल्ली, मदुरै, तिन्नेवेल्लि तथा पुराने त्रावनकोर राज्य में सातवीं शताब्दी से इस लिपि का व्यवहार होता रहा है। दक्षिण के पाण्ड्य, पल्लव तथा चोल राजाओं ने अपने अभिलेखों से इस लिपि का प्रयोग किया है। महाबलीपुरम् के धर्मराजरथ पर कुछ विरुद्ध उत्कीर्ण हैं। इस लिपि को ‘पल्लव ग्रन्थ लिपि’ का नाम दिया गया है। राजसिंह का कैलाशनाथ मन्दिर का शिलालेख सातवी शताब्दी की पल्लव ग्रन्थ लिपि का अद्वितीय उदाहरण है।

    में ग्रन्थ लिपि का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। अनेक विद्वानों का मत है कि इस लिपि का जन्म ग्रन्थ लिपि से हुआ है। इस लिपि तेलुगु-कन्नड़ लिपि

    ग्रन्थ लिपि

    मलयालम लिपि

    दोनों लिपियों में काफी समानता दिखाई देती है। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों लिपियों का उद्गम एकसाथ हुआ है। इन लिपियों का प्रयोग दक्षिणी महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश

    28 / यशराज आइडिया ऑफ भारत

    बी. ए. प्रथम वर्ष / 33 हैं- प्राचीन, मध्यकालीन और अर्वाचीन। प्राचीन स्तर की भाषाएँ वैदिक संस्कृत और संस्कृत हैं, जिनके विकास का काल अनुमानत: ई.पू. 2000 से ई.पू. 600 तक माना जाता है। मध्ययुगीन भाषाएँ हैं- मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, पैशाची भाषा, महाराष्ट्री और अपभ्रंश। इनका विकासकाल ई.पूर्व 600 ई. 1000 तक पाया जाता है। मध्ययुगीन भाषाओं (प्राकृत) की मुख्य विशेषताएँ-प्राचीन भाषाओं से उक्त मध्ययुगीन भाषाओं में मुख्यतः निम्न विशेषताएं पाई जाती हैं- (i) संस्कृत के स्वरों में ऋ, लृ, एवं ऐ और औ का मध्ययुगीन भाषाओं में अभाव है। ए और ओ की हस्व मात्राओं का प्रयोग इन भाषाओं की अपनी विशेषता है। (ii) विसर्ग यहाँ सर्वथा नहीं पाया जाता। (iii) क से लेकर म् तक के स्पर्श वर्ण पाए जाते हैं, किन्तु अनुनासिकों में संकोच तथा व्यत्यय होता है। (iv) तीनों ऊष्मा वर्णों के स्थान पर केवल एक और विशेषतः स् ही अवशिष्ट पाया जाता है। (v) संयुक्त व्यंजनों का प्रायः अभाव है। दोनों संयोजी व्यंजनों का या तो समीकरण कर लिया जाता है अथवा स्वरागम द्वारा दोनों को विभक्त कर दिया जाता है, या उनमें से एक का लोप कर दिया जाता है। (vi) द्वित्व व्यंजन से पूर्व का दीर्घ स्वर ह्रास्व कर दिया जाता है एवं संयुक्त व्यंजन में से एक का लोप कर उससे पूर्व का ह्रस्व स्वर दीर्घ कर दिया जाता है। (vii) व्याकरण की दृष्टि से संज्ञाओं तथा क्रियाओं के रूपों में द्विवचन नहीं पाया जाता है। (viii) हलन्त संज्ञाओं और धातुओं को स्वरान्त बनाकर चलाया जाता है। (ix) कारक के रूपों में संकोच पाया जाता है। (x) क्रियाओं में गणभेद एवं परस्मैपद आत्मनेपद का भेद नहीं किया जाता। (xi) सभी प्रकार के रूप विकल्प से चलते हैं। (xii) क्रियारूपों में कालादि भेदों का अल्पीकरण हुआ है। इनका बहुत काम बहुधा कृदन्तों से चलाया जाता है। लघुउत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Questions) प्रश्न 19. ब्राह्मी लिपि का परिचय दीजिए। उत्तर- Introduce the Brahmi Script. (नोटइसके लिए प्रश्न क्रमांक 17 का उत्तर देखें।) प्रश्न 20. खरोष्ठी लिपि को समझाइए । उत्तर- Explain the Kharoshthi Script. (नोटइसके लिए प्रश्न क्रमांक 17 का उत्तर देखें।) प्रश्न 21. संस्कृत भाषा पर एक टिप्पणी लिखिए। Write a note on Sanskrit. उत्तर- (नोटइसके लिए प्रश्न क्रमांक 18 का उत्तर देखें।)

    H Entr न

    JMFP

    34 / यशराज आइडिया ऑफ भारत

    प्रश्न 22. पालि भाषा का परिचय दीजिए।

    उत्तर-

    Introduce the Pali Language.

    (नोट- इसके लिए प्रश्न क्रमांक 18 का उत्तर देखें।)

    प्रश्न 23. प्राकृत भाषा पर टिप्पणी लिखिए।’

    उत्तर-

    Write the note on Prakrit Language. (नोट- इसके लिए प्रश्न क्रमांक 18 का उत्तर देखें।)

    अति लघुउत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Questions)

    लिपि किसे कहते हैं ?

    . What is the Script.

    उत्तर-

    (नोट- इसके लिए प्रश्न क्रमांक 17 का उत्तर देखें।)

    5.

    उत्त

    तिगलिरी लिपि किसे कहते हैं ?

    What is the Tigliri Script.

    उत्तर-

    (नोट- इसके लिए प्रश्न क्रमांक 17 का उत्तर देखें।)

    प्रश्

    नागरी लिपि का परिचय दीजिए।

    Introduce the Nagari Script.

    उत्तर-

    (नोट- इसके लिए प्रश्न क्रमांक 17 का उत्तर देखें।)

    उत्त

    भाषा से क्या आशय है ?

    What is the meaning of Language.

    उत्तर-

    (नोट- इसके लिए प्रश्न क्रमांक 18 का उत्तर देखें।)

    अभि

    उस

    उत्तर-

    संस्कृत की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए। “.

    Write the main characteristics of Sanskrit. (नोट- इसके लिए प्रश्न क्रमांक 18 का उत्तर देखें।)

    वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Type Questions)

    1.

    नागरी लिपि को यह भी कहते हैं-

    (अ) देवनागरी

    (ब) मानव नागरी

    (स) असुर नागरी

    (द) सुर नागरी

    निरन

    2.

    तिगलिरी लिपि है, इसका रूप-

    से ले

    होती

    (अ) खरोष्ठी

    (ब) नागरी

    भवन

    (स) ब्राह्मी

    (द) सिंधु

    दिखा

    3.

    देवभाषा कहा जाता है-

    होता

    (अ) प्राकृत भाषा को

    (ब) हिन्दी भाषा को

    (स) संस्कृत भाषा को

    (द) पालि भाषा को

    का प्रा

    बी. ए. प्रथम वर्ष / 37

    भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ

    (Salient Features of Indian Culture)

    प्रश्न 25. संस्कृति की परिभाषा दीजिए। भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं

    उत्तर-

    का वर्णन कीजिए।

    Define Culture. Discuss the salient features of Indian Culture.

    अथवा

    भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए।

    Discuss the salient features of Indian Culture.

    संस्कृति का अर्थ

    (Meaning of Culture)

    किसी समाज, देश अथवा राष्ट्र में निवास करने वाले मानव समुदाय के धर्म, दर्शन, ज्ञान, विज्ञान से सम्बन्धित क्रियाकलाप, रीति-रिवाज, खानपान के तरीके, आदर्श संस्कार आदि के सामंजस्य को ही संस्कृति का नाम दिया जा सकता है।

    संस्कृति की परिभाषाएँ (Definitions of Culture)

    1. प्रारम्भिक मानवशास्त्रियों में श्री ई.बी. टॉयलर (E.B. Toyler) ने सर्वप्रथम संस्कृत शब्द को परिभाषित किया और इस शब्द का विस्तृत प्रयोग अपनी रचनाओं में किया। आपके अनुसार, “संस्कृति वह जटिल समग्रता (Complex Whole) है, जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, आचार, कानून, प्रथा ऐसी ही अन्य क्षमताओं और आदतों का समावेश रहता है, जिन्हे मनुष्य समाज के सदस्य के नाते प्राप्त करता है।”
    2. श्री बी. मैलिनोवस्की (B. Mallinowasky) के अनुसार, “संस्कृति, प्राप्त आवश्यकताओं की एक व्यवस्था तथा उद्देश्यमूलक क्रियाओं की एक संगठित व्यवस्था है।” 3. श्री हॉबेल (Hoebel) के मतानुसार, “संस्कृति सम्बन्धित सीखे हुए व्यवहार प्रतिमानों का सम्पूर्ण योग है, जो कि एक समाज के सदस्यों की विशेषताओं को बतलाता है और जो इसलिए प्राणिशास्त्रीय विरासत का परिणाम नहीं होता है।”
    3. श्री मजूमदार और मदान (Mazumdar and Madan) लोगों के जीवन जीने के ढंग को ही संस्कृति मानते हैं (Life of people is their culture)।

    संक्षेप में, संस्कृति भौतिक और अभौतिक तत्वों की वह समग्रता हैं, जिसे हम समाज के सदस्य होने के नाते अर्जित करते हैं और जिसमें रहते हुए अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं।

    भारतीय संस्कृति

    (Indian Culture)

    भारतीय संस्कृति अन्य संस्कृतियों से सर्वथा भिन्न तथा अनूठी है। अनेक देशों की संस्कृति समय-समय पर नष्ट होती रही है, किन्तु भारतीय संस्कृति आज भी अपने अस्तित् में है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति सृष्टि के इतिहास में सर्वाधिक प्राचीन है। भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता की प्रशंसा भारतीयों के साथ ही अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने भी मुक्तकंठ से की है।

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